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________________ 46 बन बन को परोक्ष मान माना गया और शेष तीन को प्रत्यक्ष।" हमें यह भी मत देखने को मिलता है कि, प्रमाग द्वारा शात पदार्थों के अनुसार ज्ञान प्रत्यक्ष होता है या परोम । न्यायावतार के अनुसार प्रत्यक्ष ज्ञान इन्धिपजन्य होता है और परोक्ष शान भिन्न प्रकार का होता है। तत्वार्य-सूत्र के रचयिता उमास्वाति के अनुसार, प्रत्यक्ष वह प्राणाणिक मान है जिसे जीव पंचेन्द्रियों अथवा मन के बिना सीधे ग्रहण करता है । हमें प्रत्यक्ष शान की एक और परिभाषा मिलती है : "सभी बाधाओं को विनष्ट करके मात्मा के अन्तर्भाव का जो पूर्ण प्रकटीकरण होता है, उसे प्रत्यक्ष अनुभूति कहते हैं।" महत्त्व की बात यह है कि ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में बाधक विभिन्न प्रकार के कर्मों का विनाश करने पर माता का स्वरूप स्पष्ट होता है, और वह भी इन्द्रियों अथवा मन की सहायता के बिना। जैन दर्शन की यह एक विशिष्टता है, और स्वयं प्रत्यक्ष और प्रमाण भी, किसी अन्य वस्तु पर आधारित नहीं है, अपितु पूर्णतः स्वनिर्मर है।" प्रत्यक्ष अनुभूति केवल-ज्ञान कहलाती है और यह शुद्ध एवं परिपूर्ण होती है। परन्तु ऐसे परिपूर्ण ज्ञान की प्राप्ति के स्तर हैं," इसलिए एक विशिष्ट अर्थ में इन्हें प्रत्यक्ष अनुभूति भी कहते हैं । यह हैं अवधि ज्ञान और मनःपर्याय ज्ञान । प्रत्यक्ष को पारमार्थिक भी कहते हैं और परोक्ष को व्यावहारिक । प्रत्यक्ष शब्द पारमार्थिक तथा व्यावहारिक दोनों ही के साथ जोड़ा जाता है । इन्द्रियों तथा मन की सहायता के बिना प्राप्त ज्ञान को पारमार्थिक-प्रत्यक्ष कहते हैं और इन्द्रियजन्य ज्ञान को व्यवहार-प्रत्यक्ष कहते हैं।" परोक्ष की परिभाषा दी गयी है : “वह जो प्रत्यक नहीं है।""चूंकि प्रत्यक्ष 14. I. 11512 15. परीक्षामुख सूत्र', 11.14; III. 1-2; 'प्रमाणनयतस्वासोकालंकार', II. 2-3 16.भान के स्वरूप के बारे में बन दार्शनिकों ने जो मध्यम स्थिति अपनायी है, उसकी हमने पहले की है। 17. 'न्यायावतार',28 में शान के इन स्तरों का स्पष्ट आभास मिलता है। प्रमाणका परि णाम बज्ञान-निवर्तन, केवल-शान का परमसुखतवा समभाव और अन्य प्रकार सान का चुनाव तपा वस्तुओं का निरसन बताया गया है। 18. देखिये, 'न्यायावतार' तथा श्लोक 27 परवति'। प्रत्यक्ष को पारमार्षिक और परोस को व्यावहारिक मानने के बाद ऊपर बो प्रत्यक्ष के दोभाव बताये गये है में कोई विरोधाभास नहीं है। क्योंकि बनशानमीमांसा के स्वरूप अनुसार हम यह समझते। कि मानव जीव की असीम क्षमताए' और शान प्राप्ति के लिए उसे किसी गाए मदद की जरूरत नहीं है। जीवात्मा ही अपने पुररूप में शान के तुल्य है। 19. 'न्यायावतार',4
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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