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________________ नशानमीमांसा होता है। उन्हीं का कहना है कि प्रमाण स्वभावतः प्राति रहित होता है। यदि हम कहें कि प्रमाण प्रांत है, तो विरोधाभास पैदा होता है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जैन दार्शनिकों का दृष्टिकोण यथार्थवादी था। तर्क यह है कि दृश्य जगत् का भ्रांति पूर्ण होना सिद्ध नहीं हो सका है, इसलिए स्वपराभासि प्रमाण दोनों की यथार्थता को व्यक्त करता है। विपर्यय की परिभाषा की गयी है कि यह ज्ञान के विपरीत होता है और यह सत् और असत् में भेद कर पाने में असमर्थ होता है। इस परिभाषा से ज्ञान के यथार्थवादी सिद्धान्त का पता चलता है। इससे यह भी पता चलता है कि सभी प्रमाण ज्ञान है, परन्तु सभी ज्ञान प्रमाण नहीं हैं। जैन दार्शनिक ज्ञान की भीतरी तथा बाहरी सिदि को स्वीकार करते हैं, इसलिए उनके विचार योगाचार बौद्ध मीमांसक तथा नयायिकों के सिद्धान्तों से बिलकुल विपरीत हैं । योगाचार बौखों का मत है कि शान केवल स्वयं को ही प्रकाशित करता है, क्योंकि, उनके मतानुसार बाह्य वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं है । दूसरी ओर, नैयायिकों एवं मीमांसकों का मत है कि ज्ञान स्वयं को प्रकाशित नहीं करता, यह सिर्फ बाह्य जगत् की वस्तुओं को ही प्रकाशित करने में समर्थ होता है। हम उन तीन स्तरों को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं जिनमें जैन मानमीमांसा का विकास हुआ है। पहले स्तर का उल्लेख हम कर चुके हैं । इस स्तर में ज्ञान को पांच प्रकारों में बांटा गया है। पांच प्रकार का यह वर्गीकरण धर्मग्रन्थों की रचना के पहले का है । एन० तातिया का मत है कि आगम शानमीमांसा अतिप्राचीन है और संभवतः इसकी उत्पत्ति महावीर के पहले के काल में हुई है। अतः कहा जा सकता है कि महावीर ने यह मान-सिद्धांत पावं की परम्परा से ग्रहण किया है। दूसरे स्तर में ज्ञान को केवल दो प्रमुख भागों में विभाजित किया गया हैप्रत्यक्ष और परोक्ष । यह व्यवस्था स्थानांगसूत्र में देखने को मिलती है।" तत्वार्य सूत्र में ज्ञान को पहले पांच प्रकारों में बांटा गया है और फिर इन्हें वो भागों में विभाजित किया गया है-प्रत्यक्ष और परोक्ष। यहां मति तथा श्रत 8. वही,1 9. वही,6 10. बही,7 11. देखिये, 'तत्त्वार्य-मूत्र,'1.32 133 बार भाष्य 12. 'स्टीम इन न फिलोसफी' (बनारस : बैन कस्तारल रिसर्च सोसायटी, 1951) पु. 27 13. II. 1.7
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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