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________________ 38 जैन दर्शन यदि यह तर्क पेश किया जाय कि इस जगत का कोई ईश्वर कारण है, तो कहा जा सकता है कि आदमी की तरह ईश्वर भी अपरिपूर्ण है । और, यदि यह कहा जाय कि इन दो प्रकार के कारणों में इतनी विशिष्ट समानता नहीं है, तो जैन. दार्शनिक कहता है तो फिर नैयायिक की अनुमिति भी ठीक नहीं है। चूंकि भाप धुएं के समान होती है, इसलिए इस परिणाम पर पहुंचना कि भाप भी आग से निकली है, न्यायोचित नहीं है। तीसरा विकल्प जगत कार्य अन्य कार्यों से भिन्न है ( और इसलिए इसका कारण भी भिन्न है ) - भी जैन दार्शनिक को मान्य नहीं है । उसका कहना है : जगत की सृष्टि के कारण तथा मकान के शनैः शनैः खण्डहर हो जाने जैसे परिणाम के बारे में सबसे महत्व की बात यह है कि इनके कारण अदृश्य हैं और इसलिए हमें यह स्वीकार करना होगा कि बुद्धिमान शक्ति ही खण्डहर के लिए कारणीभूत है । सामान्य निर्माता -- किसी कार्य का कारण कर्ता के सादृश्य से शुरू करके जैन दार्शनिक तर्क पेश करता है कि जगत का कर्ता यदि कोई ईश्वर है तो उसका भी शरीर होना चाहिए। वह कहता है हमने बिना शरीर का कोई बुद्धिमान कर्ता नहीं देखा, इसलिए जगत का कर्ता भी बिना शरीर का नहीं हो सकता । जैन दार्शनिक अन्य संभावनाओं पर भी विचार करता है। जैसे ईश्वर बिना शरीर का है, फिर भी वह सृष्टि का कर्त्ता है। सृष्टि का निर्माण उसने स्वेच्छा से किया होगा या आदमियों के अच्छे या बुरे कर्मों के कारण हुआ होगा या लोगों पर ईश्वर की कृपा के कारण या ईश्वर सृष्टि के निर्माण को महज एक खेल समझता होगा। जैन दार्शनिक का कहना है कि इन चारों में से कोई भी विकल्प हमें ऐसे किसी परिपूर्ण ईश्वर का आभास नहीं दिलाता जो अपने गुणधर्मों में मानवता से बहुत अलग हो । यदि हम यह स्वीकार करते हैं कि ईश्वर स्वेच्छा से इस जगत का निर्माण किया है तो फिर विश्व को संचालित करनेवाले सभी प्राकृतिक नियम निरर्थक सिद्ध होते हैं। यदि अच्छे और बुरे कर्मों से जगत का निर्माण हुआ है तो फिर ईश्वर की स्वतंत्र भूमिका समाप्त हो जायगी, क्योंकि तब आदमियों के अच्छे और बुरे कर्मों के बारे में उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी । मानवता पर कृपा करने के लिए इस जगत का निर्माण किया गया है - यह तर्क भी संतोषजनक नहीं है, क्योंकि तब यह समझ में नहीं आता कि इस संसार में इतना दुःख क्यों है। इस संदर्भ में यदि हम यह मानते हैं कि अच्छे और बुरे कर्मों के कारण ही इस संसार में सुख और दुःख है, तो फिर ईश्वर की सत्ता निरयंक सिद्ध होती है। अन्तिम विकल्प का अर्थ यह होगा कि ईश्वर ने निरुद्द श्य ही इस जगत की सृष्टि की है। जैन दार्शनिक के मतानुसार इन सारे तर्कों की निष्पत्ति यह है कि ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करना एक निरर्थक प्रयास है, और इसलिए बेहतर यही है कि इस कल्पना को ही पूर्णतः अस्वीकार
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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