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जैन दर्शन तीर्थकर का स्थान ईश्वर से ऊंचा है। तीर्षकर का स्थान प्राप्त करना ही जीवन का उद्देश्य है और तीर्थकर मानवता का सर्वोत्कृष्ट आदर्श है। अतः स्पष्ट होता है कि आध्यात्मिक परिपूर्णता प्राप्त करना संभव है; यह केवल एक काल्पनिक महत्त्व की बात नहीं है।
भारतीय देवों के बारे में गाय ने जो एक बात कही है, उससे जैन दर्शन के नास्तिक स्वरूप को समझने में सहायता मिलती है। वह कहते हैं : "भारत में लोगों के पिछड़े हुए देवों को मान्यता देकर नास्तिक मत के साथ उनका भलीभांति मेल बिठाया गया है। सांख्य दर्शन में जन्येश्वर अथवा कार्येश्वर की क्षणिक स्थिति पर पहुंचे हुए देवों में जो विश्वास प्रकट किया गया है उसका नित्यश्वर से कोई सम्बन्ध नहीं है । नित्येश्वर के बारे में आस्तिकों की मान्यता है कि उसी ने अपनी इच्छा शक्ति से यह सृष्टि बनायी है । भारतीय दर्शन में इस विशेष 'ईश्वर' शब्द का प्रयोग इसीलिए रूह हुआ कि इसे जनसाधारण के देवों से, बोलचाल में भी, भिन्न माना जाय।"" ___ इस संदर्भ में यह जानना उपयोगी होगा कि छह पुरातन भारतीय दर्शनों में जो आस्तिक दर्शन हैं, उनमें से भी कुछ ने ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार किया है। जैसे, न्याय और वैशेषिक दर्शन अपने मूल रूप में अनीश्वरवादी थे और कालान्तर में इन दोनो का संयोग होने पर ईश्वरवादी बने। इसी प्रकार, सांख्य दर्शन ने भी आरंभ में ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार किया था । वस्तुत सांख्य दर्शन की यह एक प्रमुख विशेषता थी और इसे इसीलिए निरीश्वर दर्शन भी करते हैं। कई सत्रों में कहा गया है कि ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करना संभव नहीं। मीमांसकों का भट्ट सम्प्रदाय भी सर्वशक्तिमान ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करता है।
अब हम ईश्वर के अस्तित्व के जैन खण्डन पर विचार करेंगे। जैन दर्शन, आस्तिक दर्शनों की तरह, सृष्टि के निर्माता एवं नियंता किसी सर्वशक्तिमान ईश्वर में यकीन नहीं करता। जैन मतानुसार, इस विश्व का न कोई आरंभ है, न कोई अन्त । यहां हमें एक अति सुसंगत बाह्मार्पवाद के दर्शन होते हैं। इसके अनुसार प्रत्येक वस्तु का अनादि काल से अस्तित्व है । अत: उनकी उत्पत्ति को सिद्ध करने के लिए किसी सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता की आवश्यकता नहीं है। आचार्य जिनसेन पूछते हैं : "यदि ईश्वर ने इस सृष्टि का निर्माण किया है, तो पहले वह कहां था? यदि वह दिक् में नहीं था, तो फिर उसने सृष्टि का निर्माण
4. वही, पृ. 185 5. 1,92-947 V.2-12:46,126 और 1273 VI.64 और 65 6. प्रकरण 16