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क्या जैन धर्म नास्तिक है ?
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भारतीय दर्शनों को दो वर्गों में बांटा जाता है-आस्तिक और नास्तिक । इनमें चार्वाक और बौद्धों के साथ जैनों की गिनती नास्तिक मत के अन्तर्गत होता है।
भारतीय परम्परा में नास्तिक शब्द का इस्तेमाल तीन अर्थों में होता है-पुनर्जन्म में अविश्वास, वेदप्रामाण्य में अविश्वास और ईश्वर में अविश्वास । इनमें से प्रथम अर्थ में जैन धर्म नास्तिक नहीं है, क्योंकि जैन मतानुसार मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है । पुनर्जन्म तथा कर्म सिद्धान्त को छह पुरातन भारतीय दर्शनों की आधारशिला माना जाता है, और इन्हें जैन मत भी स्वीकार करता है । जीव के चार स्वरूपों का जिस प्रकार वर्णन किया गया है, उससे पता चलता है कि जैन मत कट्टर नास्तिक मत नहीं था । जैन धर्म में बताया गया है कि आदमी को नैतिक जीवन व्यतीत करना चाहिए ताकि उसके आध्यात्मिक जीवन की अवनति न हो और उसे कर्म- बन्धन से मुक्त होने का लक्ष्य सामने रखना चाहिए। यह बातें इस गलतफहमी को दूर करती हैं कि चार्वाकों तथा जैनों का नास्तिक दृष्टिकोण एक ही स्तर का था ।
जहां तक दूसरे अर्थ का प्रश्न है, इस मत के बारे में कोई दो विचार नहीं हो सकते कि जैन धर्म स्पष्टतः वेद-विरुद्ध है। जैन धर्म वेदप्रामाण्य को स्वीकार नहीं करता, परन्तु इसका कारण यह नहीं था कि उसकी मानव जीवन के कल्पनाशील तथा आधिभौतिक विश्लेषण में आस्था नहीं थी । जैन मनोविज्ञान, तत्वमीमांसा तथा ज्ञानमीमांसा इस तथ्य के साक्षी हैं कि वेदों को प्रमाणग्रन्थ न मारने का यह कारण नहीं था कि जैनों को दार्शनिक चिंतन से कोई अप्रीति थी । जैनों के भी अपने आचार्य तथा मुनि और धार्मिक ग्रन्थ थे जिनमें दर्शन की बातें मौजूद थीं। जैनों के भी अपने प्रमाण ग्रन्थ थे । जनों का विश्वास है कि उनके धर्मग्रन्थों में सही ज्ञान निहित है, क्योंकि उनमें ऐसे महापुरुषों के उपदेशों का संकलन हुआ है जिन्होंने सांसारिक जीवन बिताया, परन्तु सम्यक् कर्म तथा सम्यक् ज्ञान द्वारा स्वयं को परिपूर्ण बनाया ।
नास्तिक शब्द का 'ईश्वर को न मानना' यह जो तीसरा अर्थ किया जाता है उसका विशेष महत्व है, क्योंकि जनसाधारण में नास्तिक शब्द का प्रचलित अर्थ अनीश्वरवादी ही है। जैन धर्म को पूर्णतः अनीश्वरवादी मानना अप्रामा