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________________ जैन दर्शन में केवल महावीर तथा उनके विरोधियों के बीच हुए दार्शनिक वाद-विवाद का विवेचन था, इसलिए जैनों के लिए जटिल बन गया या इसमें उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रही ।" लेउमान का मत है कि इस श्रुतांग में फल-ज्योतिष, मन्त्रतन्त्र आदि का वर्णन रहा होगा, इसलिए जैनों ने इसे मुला दिया । " इन तीनों विद्वानों के मतों का सारांश यही है कि स्वयं जैनों ने ही इस बारहवें अंग को या दिया । किन्तु संभवत: बात ऐसी नहीं है, क्योंकि स्वयं जैनों का कहना है कि पूर्व साहित्य शनै: शनैः लुप्त हुआ । 32 III] उपांग उपांग भी बारह हैं; परन्तु इनके थोड़े अध्ययन से ही स्पष्ट हो जाता है कि अंगों तथा उपांगों में कोई अन्तर्गत सम्बन्ध नहीं है । औपपातिक : इस उपांग का ऐतिहासिक महत्व है। इसमें राजा अजातशत्र, और महावीर की भेंट तथा महावीर द्वारा पुनर्जन्म एवं मुक्ति के बारे में दिये गये उपदेशों का विस्तृत वर्णन है । राजप्रश्नीय: इसमें राजा पएसी केशी मुनि से जीव तथा शरीर के सम्बन्ध के बारे में सवाल पूछता है। राजा का समाधान हो जाने पर वह जैन धर्म में दीक्षित हो जाता है। जीवाभिगम तथा प्रज्ञापना: इन उपांगों में जीव और अजीव के भेद-प्रभेदों का विवरण है । सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति : इनमें क्रमश: भारतीय ज्योतिष, भारतीय भूगोल और खगोल का विवेचन है । कल्पका, कल्पासिका, पुष्पिका, पुष्पङ्गुला और वृष्णिवशा : ये पांच air संभवतः एक ही ग्रन्थ निरमावली सूत्र के भाग | अंगों की तरह उपांगों को भी बारह तक पहुंचाने के लिए इस ग्रन्थ को पांच उपांगों में बांट दिया गया होगा । IV प्रकीर्ण : इनकी संख्या दस है और, जैसा कि नाम से जाहिर है, इनमें कोई तारतम्य नहीं है । इनमें नाना विषयों का विवेचन है। दस प्रकीर्ण ये हैं : चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, संस्तार, तंबुलवैचारिक, मन्द्रवेष्यक, बेवेन्द्रस्तव, गणितविद्या, महाप्रत्याख्यान और वीरसस्य । 17. 'जैन सूवाज' भाग प्रथम, भूमिका, पु० xiv 18. सी० जे० शाह द्वारा उद्धत पूर्वो० पु० 231, टिप्पणी
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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