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________________ जैन साहित्य "" उपस्थिति में गृहस्थ-जीवन त्यागकर प्रव्रज्या ग्रहण की है। परन्तु आपकी उपस्थिति में मैं गृहस्थ के बारह व्रत -पांच अनुव्रत, तीन गुणवत और चार शिक्षाव्रत - ही लूंगा। भगवान मुझपर कृपा करेंगे, मुझे निराश नहीं करेंगे 128 अन्य कथाएं भी धनिकों के बारे में हैं। इनका भाव है कि धनी लोग विना संसार त्याग किये साधु वृत्ति को अपनाने से ही ऐसी अद्भुत शक्तियां प्राप्त कर सकते हैं, जो उन्हें स्वर्ग में देव रूप जन्म दिलाने में समर्थ हैं ।" जो समीक्षक जैन धर्म की यह कहकर आलोचना करते हैं कि इसमें साधु वृत्ति पर अधिक बल दिया गया है, उन्हें इस कहानी से पता चलेगा कि महत्व साधुवृत्ति का नहीं, बल्कि साधुभाव का है, साधु का नहीं, बल्कि साघुता का है। जैन धर्म के बारे में अनेक गलतफहमियों का कारण यह धारणा है कि जैन धर्म साधुवृत्ति तथा अहिंसा पर अत्यधिक जोर देता है। चूंकि जैन धर्म के एक प्राचीन ग्रन्थ में संसारिक जीवन के त्याग पर अधिक बल दिया गया है, इसलिए आधुनिक विद्वानों का इससे यह नतीजा निकालना कि इसका अर्थ साधुता से न होकर साधु होने से है, ठीक नहीं है । हमारे इस मत को कि संसार-त्याग के बारे में जैन धर्म ने चरम दृष्टिकोण नहीं अपनाया था, उन कथाओं से समर्थन मिलता है जो सातवें, आठवें तथा नौवें अंगों में आयी हैं और जिनमें कहा गया है कि लोगों को पवित्र एवं निर्लिप्त सांसारिक जीवन व्यतीत करना चाहिए।" , 31 प्रश्न व्याकरण : इसके प्रथम खण्ड में पांच नवद्वारों-हत्या, झूठ, चौरी, व्यभिचार तथा आसक्ति का वर्णन है और दूसरे में पांच संवरद्वारों का, यानी उन्हीं के निषेध रूप अहिंसादि व्रतों का 125 विपाकसूत्र : इस अंग में पाप और पुण्य कर्मों के बारे में बहुत सारी कथाएं हैं। दृष्टिवाद : यह श्र ुतांग अब नहीं मिलता। मान्यता है कि इस अंग में चौदह पूर्वो का समावेश किया गया था। यूरोप के कुछ चोटी के विद्वानों का मत है कि बारहवें अंग के लुप्त होने के बारे में स्वयं जैनों से ही कोई विश्वसनीय जानकारी नहीं मिलती। वेबर का मत है कि जनों ने ही स्वेच्छा से इस अंग को त्याग दिया है, क्योंकि दृष्टिबाद की शिक्षाओं में और उनकी परम्परागत शिक्षाओं में कोई मेल-जोल नहीं रह गया था ।" याकोबी का मत है कि इस मंग 12. वही, I, 12 13. वही, 1, 63 14. देखिये, बार्नेट, 'अन्तकदवा : एण्ड अनुत्तरोपपादिकदशाः, पृ० 15, 16 व 110 15. ई०ए०, XX, पृ० 23 16. ६० ए०, XVII, पु० 286
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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