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________________ बन दर्शन माध्यम से उच्च नैतिक शिक्षा प्रदान करने का प्रयत्न किया गया है। उदाहरण के लिए, इस मन के प्रथम श्रुतस्कंध की एक कथा है : एक व्यापारी की चार पुत्रवधुएं थीं। उनकी 'परीक्षा लेने के विचार से उसने हरएक को पांच-पांच चावल दिये, बार कहा कि समय माने पर वह उन चावलों को वापस मांग लेगा। पहली पुत्रवधू ने यह सोचकर चावल फेंक दिये कि जब वापस लौटाने होंगे तो वह बड़ी आसानी से मोदाम से पांच चावल लाकर देगी। दूसरी ने वे चावल खा लिये । तीसरी ने उन चावलों को जतन से सुरक्षित रखा । परन्तु पाथी ने उन चावलों को बो दिया, और जब व्यापारी ने उन्हें वापस मांगा, तो उसने बहुत सारे चावल दिये। इस कथा का आशय यह बताना है कि मुनि भी बार प्रकार के होते हैं : पंचव्रतों की उपेक्षा करनेवाले मुनि, पंचव्रतों को महत्त्व न देनेवाले मुनि, पंचवतों का जतन से पालन करनेवाले मुनि और अन्त में वे मुनि जो न केवल उनका पालन करते हैं बल्कि उनका प्रचार-प्रसार भी करते हैं। उपासकदशा, अन्तशा और अनुत्तरोपपासिकाशा : ये सब कथामन्य हैं और इनमें अनेक दुष्टान्त देकर तपस्वी का जीवन अपनाने की शिक्षा दी गयी है। इन कथाओं के माध्यम से लोगों को समझाया गया है कि अपनी धन-दौलत का त्याग करनेवाले गृहस्थ भी अलौकिक शक्तियां हासिल कर सकते हैं और संन्यासी की तरह मत्यु का वरण करके उच्च देवपद प्राप्त कर सकते हैं। उपासकवना में दस अध्ययन हैं और इनमें जैन उपासकों के धार्मिक नियम समझाये गये हैं। प्रत्येक अध्ययन में धर्मनिष्ठ श्रावकों के बारे में एक कथा है।' पहली कहानी हमारी दृष्टि से विशेष महत्त्व की है। इसमें बताया गया है कि एक बार महावीर वाणिज्य ग्राम के समीप के कोल्लाग सनिवेश में पहुंचे। वहांके धनी गृहस्थ आनंद ने महावीर की पूजा की और उनके धर्मोपदेश को सुना।" धर्म में अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए उसने कहा : ".."मैं जानता हूं कि बहुत-से राजाओं, राजकुमारों, श्रेष्ठियों, राजप्रमुखों, नगरप्रमुखों आदि ने आपकी 6. 'माता सूब', 63 7.जैन धर्म में 'उपासक' शब्द ऐसे लोगों के लिए प्रयुक्त होता है जो महावीर के उपदेशों को तो ग्रहण करते हैं, परन्तु तपस्वी के व्रत नहीं लेते,न ही संसार त्याग करते हैं। बनुबतों को अंगीकार करके सामाजिक जीवन व्यतीत करना संभव है, इसलिए उपासक गृहस्थ बना रह सकता है। 8. 'उपासकदशा' : I, 2 9. बही, 1,749 10. बही, I, 10 11. बही,I,11
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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