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जैन साहित्य
आदि वादों के खण्डनों का निरूपण है।
पहले के अंग की तरह इस अंग में भी गद्य-पद्य का मिश्रण है और इसमें कई दृष्टान्त भी हैं, जो हमें बुद्ध के दृष्टांतों की याद दिलाते हैं। इस बंध का मुख्य विषय है उन तरुणों के लिए चिंता जो नये-नये जैन धर्म में दीक्षित हुए
। विरोधी मतों द्वारा दिये जाने वाले प्रलोभनों से नवदीक्षित साधुओं को साथare किया गया है । एक कथन है : "शिकारी पक्षी जिस तरह कूदते फांदते पंख न निकले हुए पक्षियों को उड़ा ले जाते हैं, उसी प्रकार अनैतिक आदमी धर्म को अभी ठीक से न समझे हुए नवदीक्षित साधु को बहकाकर ले जायेंगे ।" सूत्रकृतांग में जिन विरोधी मतों का जिक्र आया है, उनमें से एक है बौद्ध और इसका खण्डन किया गया है। फिर भी जैसा कि विंटरनिट्ज ने कहा है, आचारांग में संसार के बारे में हम जो दृष्टिकोण देखते हैं वह बौद्ध दृष्टिकोण से अधिक भिन्न नही है। उदाहरण के लिए, उल्लेख है : "केवल मुझे ही नहीं बल्कि संसार के सभी प्राणियों को दुःख भोगना पड़ता है, बुद्धिमान आदमी को इस पर विचार करना चाहिए और उसपर यदि कोई विपत्ति आये तो उसे विना किसी विकास के चुपचाप सहन करना चाहिए ।
मत,
स्थानांग और समवायांग : इनमें जैन दर्शन का भंडार है और जैनाचार्यों के ऐतिहासिक चरित्र भी हैं। स्थानांग में बारहवें अंग दृष्टिवाद की विषय-सूची दी गयी है और इसमें जैनों के सात सम्प्रदायों का भी स्पष्ट उल्लेख है । समवायांग में कुछ हद तक शेष सभी अंगों के अंशों का समावेश हुआ है ।
भगवती : इस ग्रंथ में महावीर के समकालीन तथा पहले के जैन मुनियों का वर्णन है, इसलिए इसे बड़ा पवित्र माना जाता है । इस ग्रंथ में हमें गौशाल तथा जमालि द्वारा संस्थापित विरोधी मतों के बारे में जानकारी मिलती है। इस ग्रंथ के आधार पर वेबर इस परिणाम पर पहुंचे थे कि जैन धर्म अत्यंत प्राचीन है ।
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शातृधर्म कथा : यह प्रमुखतः एक कथाग्रन्थ है । इसमें कई कथा दृष्टान्त हैं और हरएक में कोई न कोई नैतिक शिक्षा है। वेबर ने लिखा है : "इन कथाओं को देखने से पता चलता है कि इनकी कोई सुचारु परम्परा रही है। इनमें संभवत: ( विशेषत: इसलिए कि इनमें और बौद्ध कथाओं में बड़ा साम्य है) महावीर कालीन जीवन के बारे में हमें विशेष महत्व की जानकारी मिलती है। "5
यहां हमें हिन्दुओं के पुराण साहित्य का और बौद्धों के जातक साहित्य का स्मरण हो आता है। इन सभी ग्रन्थों में सरल कथाओं एवं रोचक दृष्टान्तों के
5. इ० ए०. XIX, पु० 65