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________________ 28 जैन दर्शन उत्पाद, अप्रायणीय, बीर्यानुवाद, मस्तिनास्तित्रवाद, मानवाद, सत्यवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रचार प्रत्यास्थाम, विचानुवाब, अवन्य प्राणाषुः, कियाविशाल और लोकबिन्दुसार। II. अंग साहित्य ___ जैन धर्म की प्राचीनतम उपलब्ध स्रोत-सामग्री अंग साहित्य है । यहां हम बारह अंगों पर विचार करेंगे। ___ आचासंग : यह सबसे प्राचीन मंग है और इसके दो श्रुतस्कंध हैं। शैली और विषय की दृष्टि से इन दोनों में काफी अन्तर है । प्रथम अतस्कंध अधिक प्राचीन है, इसीलिए भाषासंग को लिखांत का प्राचीनतम अंग माना जाता है। ___ इस अंग में पाश तथा गद्यांश दोनों हैं। दोनों स्कंधों में मुनि-आचार का वर्णन है। इन स्कंधों में महावीर के उन उपदेशों का संकलन हुआ है जो उन्होंने अपने शिष्य सुधर्म को दिया था और जिसे सुधर्म ने अपने शिष्य जम्बू को सुनाया था। ___ गद्यांश की शुरूआत इस प्रकार होती है : सुर्व में आउसं! तेण भगवया एवमलाय। (आयुष्मन्, मैंने सुना । ऐसा भगवान ने कहा)। यहां मैं शब्द सुधर्म के लिए है और भगवान शब्द महावीर के लिए । प्रत्येक उद्देश्य के अंत में अब्द आते हैं : तिनि (ऐसा मैं कहता हूं)। इनमें हमें उपदेश दिये जाने के भी व्यापक उल्लेख मिलते हैं । जैसे, "अतीत, वर्तमान तथा भविष्य के सभी अर्हत् ऐसा कहते हैं, ऐसा बोलते हैं, ऐसी घोषणा करते हैं, ऐसी व्याख्या करते हैं : किसी भी उच्छ्वसित, विद्यमान, जीवित तथा वेतन (वस्तु) को क्लेश न हो, पीड़ा न पहुंचे, निर्वासित न किया जाय।" कुछ ऐसे भी उपदेश हैं जिनमें हमें कड़े प्रतिबन्धों के दर्शन होते हैं । जैसे, एक उद्देश्यक में कहा गया है : "यह शुद्ध एवं शाश्वत धर्म है और संसार को समझनेवाले बुद्धिमानों ने इसका उपदेश दिया है । यह धर्म ग्रहण करने पर इसे छिपाना नही चाहिए, न ही इसे त्यागना चाहिए। इस धर्म को ठीक से आत्मसात् कर लेने पर मनुष्य का अपनी इंद्रियों पर अधिकार हो जाता है और वह संसार के इशारों के अनुसार नहीं चलता। जो मनुष्य (सांसारिक सुखों में) फसे और डूबे रहते हैं, उनका पुनः पुनः जन्म होता है। सावधान रहो तो तुम्हारी विजय होगी। ऐसा मैं कहता हूं।" सूतांग : इस ग्रंथ में भी दो तस्कंध हैं । जैन पंडित माचारांग के प्रथम बतस्कंध की तरह सूत्रकृतांग के प्रथम तस्कंध को भी प्राचीन धर्म साहित्य के अन्तर्गत रखते हैं। इस अंग में किवावाब, मणियाबाद, नायिक, असलवार
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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