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बैन साहित्य
उस समय तक उपदेशों का बाचन त परम्परा में ही रहा । इस पत परम्परा के दौरान उपदेशों में काफी परिवर्तन किया गया होगा। इसलिए इनः . अन्यों के प्रथम संकलन को भी प्रामाणिक नहीं माना जा सकता । वस्तुतः इन प्रयों को अंतिम रूप मिलने तक इनमें कई प्रकार की जोड़-तोड़ हुई है। यह भी एक महत्त्व का फरक है कि पहले अर्ष-मागधी भाषा का प्रयोग हुआ था और बाद में मागधी का । इन सब जटिलताओं के कारण जैन धर्म की विभिन्न विचार परम्पराओं को सुलझाने में कठिनाई होती है।
जैन धर्म के जो स्रोत न आज उपलब्ध हैं, उनमें हम देखते हैं कि उनके रचयिताओं एवं टीकाकारों ने विभिन्न शैलियों तथा विधियों का प्रयोग किया है। कुछ नथ शुद्ध गद्य शैली में हैं, तो कुछ प्रयों का दार्शनिक चिंतन पथ में भी गूंथा गया है। यदा-कदा पद्य एवं गद्य की मिश्रित शैली के भी दर्शन होते है और कुछ धर्म ग्रंथों में अस्पष्ट अंश तथा पुनरावृत्तियां भी हैं। इस सारे आवे-! ष्टन के भीतर वह सारा व्यवस्थित एवं ताकिक दार्शनिक चितन है जिसकी तुलना किसी भी अन्य विकसित भारतीय अथवा पाश्चात्य चिंतन परम्परा से, की जा सकती है।
जैन धर्म के स्रोत मंथों को सात वर्गों में रखा जाता है। यहां हम क्रमानुसार इन पर विचार करेंगे। I. पूर्व साहित्य
पूर्व चौदह हैं और इन्हें प्राचीनतम जैन धर्मग्रंथ माना जाता है। एक मत के अनुसार, पूर्वो की रचना प्रथम तीयंकर ऋषभ के समय में हुई थी। अन्य मत है कि पूर्वो में निहित उपदेश महावीर का है और ममों की रचना उनके गणघरों ने की है। याकोबी इस दूसरे मत के समर्थक हैं । खारवेंटिएर का भी यही मत है, परन्तु वह कहते हैं : "गणधरों और बंगों के सम्बन्ध के बारे में कुछ संदेह होता है, क्योंकि गणधर ग्यारह हैं और बारहवें मंग के सुप्त होने पर मंग भी केवल ग्यारह ही बचे हैं। उनके मतानुसार इस संयोग से पता चलता है कि "यह सारी कहानी बाद में गढ़ी गयी है।"
श्वेताम्बरों और दिगम्बरों का परम्परागत विश्वास है कि पूर्व साहित्य पूर्णतः लुप्त हो गया है और अब उसे प्राप्त करना संभव नहीं है। चौथे मंग तथा नन्दीसूत्र में पूर्वो की सूची दी गयी है। इस सूची के अनुसार चौदह पूर्व ये हैं : 2. बल मेरा 3. पूर्वो०, पृ. 11-12 4. वही,१.12