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जैन साहित्य
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जैन धर्म महावीर से अधिक प्राचीन है, इसलिए जाहिर है कि सारा धर्म साहित्य केवल चौबीसवें तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट नहीं हो सकता । परन्तु महावीर के उपदेशों को विशेष महत्त्व प्राप्त है । उनके उपदेशों का धर्म ग्रन्थों में संकलन हुआ है और ये ग्रन्थ प्रमुख रूप से जैन परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
जैन धर्म के अध्ययन में अनेक कठिनाइयां हैं। एक कारण है इस धर्म की प्राचीनता। दूसरा कारण यह है कि ईसा की पांचवीं सदी तक के अनेकानेक जैनाचार्यों की दार्शनिक कृतियां उपलब्ध नहीं हैं। धर्म ग्रन्थों का संकलन संभवत: पांचवीं सदी में हुआ। चूंकि धर्म ग्रन्थों के संकलन के लिए आयोजित संघसम्मेलनों के बारे में निर्विवाद तिथियां नहीं मिलतीं इसलिए जैन धर्म के इतिहास के अध्ययन में अनेक कठिनाइयां हैं। इन संघ-सम्मेलनों की उपलब्धियों के बारे में भी मतान्तर हैं। एक मत है कि प्रथम संघ सम्मेलन का आयोजन (300 पू० के आसपास) पाटलिपुत्र में हुआ था और उसमें चौदह पूर्वो में से केवल दस पूर्वो का ही संकलन हुआ, परन्तु जैनों का एक वर्ग इसे स्वीकार नहीं करता । अतः इस मत के अनुसार, सिद्धांत की उत्पत्ति दस पूर्व तथा अन्य अंगों के संकन के साथ ही हुई है।
या खारपेंटिएर इस मत को अस्वीकार करते हैं कि प्रथम सम्मेलन के समय केवल दस पूर्व ही संकलित हुए। वह इस मत को भी अस्वीकार करते हैं कि सम्मेलन के समय चौदह पूर्वो का अस्तित्व नहीं था। वह लिखते हैं: न केवल चौथे अंग के रचयिता को बल्कि काफी बाद के नन्दोसूत्र के रचयिता को भी सारे चौदह पूर्वो की जानकारी थी। इन चौदह पूर्वो का दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग में संकलन हुआ था और काफी बाद तक हमें इस ग्रन्थ के बारे में जानकारी मिलती है। इसके अलावा अगों तथा अन्य धर्म ग्रंथों पर लिखी गयी टीकाओं में भी हमें उद्धरण के रूप में पूर्वो के कुछ अंश मिलते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि 300 ई० पू० के संघ-सम्मेलन के काफी बाद तक पूर्वी का अस्तित्व रहा है। इसका अर्थ यह है कि -- भद्रबाहु और शूलभद्र के समय के बाद भी प्राचीन धर्म ग्रंथों का अस्तित्व रहा है।""
1. 'उत्तराध्ययन सूत' (उपसाला : 1922), भूमिका, पु० 15