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श्वेताम्बर और दिगम्बर
21 भिम बन जाना, सामान्य मानवीय बन्धनों से अपनी रक्षा करने के लिए एकान्त का पुजारी बनना।"
भारत पर सिकंदर के हमले के समय (327-326 ई०पू०) देश में दिगम्बरों का अच्छा-खासा समदाय थायनानी इतिहासकारों ने इन जिम्नोसोफिस्ट' यानी नग्न दार्शनिक कहा है। दिगम्बर सम्प्रदाय संभवतः साकी सबी सदी तक टिका रहा। फिर मुस्लिम शासकों ने उनके नंगे रहने पर रोक लगा दी।
श्वेताम्बर 'श्वेत वस्त्रधारी' होते हैं और ये श्वेत वस्त्र उनकी पवित्रता' सम्बन्धी धारणा के घोतक हैं। इससे उनका सार्वलौकिक दृष्टिकोण स्पष्ट होता है। जैन परम्परा से अधिक अलग न जाकर उन्होंने शिष्टता का विशेष ख्याल रखा। एक मत यह है कि जैन धर्म में इस स्वस्थ परम्परा का आगमन महावीर के प्रयास से हुआ और उन्होंने स्त्रियों को भी संघ में शामिल होने की अनुमति दे दी। परन्तु कुछ विद्वानों का मत है कि महावीर 'जिम्नोसोफिस्ट'थे । यदि यह मत सच है, तो फिर हमें यह समझने में कठिनाई होती है कि उन्होंने जैन परम्परा में सुधार कैसे किया; क्योंकि दिगम्बरों की कट्टर मान्यताबों में से एक यह है कि स्त्रियों को संघ में प्रवेश नहीं मिलना चाहिए, और महावीर उनको प्रवेश दिलाने । का समर्थन करते हैं।
यह निश्चित जान पड़ता है कि महावीर के समय में भी इन दोनों सम्प्रदायों का अस्तित्व था और उन्होंने किसी तरह इन दोनों को एकत्र बनाये रखा । दोनों का पृथक्करण काफी बाद में हुआ। झिम्मेर जैसे कुछ विद्वानों ने इस प्रश्न पर भी विचार किया है कि दोनों सम्प्रदायों में से किसका उदय पहले हुआ है । परन्तु हमारे लिए यही जानना उपयोगी होगा कि इनमें फूट कब और कैसे पड़ी, क्योंकि यह सर्वमान्य है कि दोनों सम्प्रदाय जैन धर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं । अतः अधिक संभव यही है कि किसी भी सामाजिक संस्था में अन्तनिहित जो विभाजक शक्तियां होती हैं, उन्हीं से जैन समाज भी प्रभावित हुमा है। जैन धर्म में इस फूट के बारे में कई मत हैं।
श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार इस फूट के दो कारण हो सकते हैं । पहला कारण यह बताया जाता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में (310ई०पू० के भासपास) मगध देश में बारह साल का अकाल पड़ा था। इस अकाल से बचने के लिए बारह हजार भिक्ष भावाहु के नेतृत्व में दक्षिण भारत चले गये, परन्तु नग्न रहने के नियम पालन करते रहे । भद्रबाहु की अनुपस्थिति में स्थूलभद्र उत्तर
2. 'फिलॉसफीज मॉक हंडिया' (लंदन : कटनेव एग केमान पॉल, 1953), १. 158.
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