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________________ जैन दर्शन है महामति, क्या आपको इन दो धर्मो में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता ?"" गौतम ने उत्तर दिया : "पार्श्वनाथ अपने समय को भलीभांति समझते थे, इसलिए अपने युग के लोगों के लिए उन्होंने चातुर्याम का उपदेश दिया । अपने समय के लोगों के लिए जैन धर्म अधिक उपयोगी सिद्ध हो, इसलिए महावीर ने उन्हीं चार यामों को पांच ग्रामों के रूप में प्रस्तुत किया । वस्तुतः दोनों तीर्थंकरों के उपदेशों में कोई तात्विक अन्तर नहीं है ।' 118 महावीर ने ठीक किस नये व्रत की स्थापना की, इस प्रश्न पर कभी-कभी श्वेताम्बर तथा दिगम्बर सम्प्रदायों के बीच के सचेल-अचेल के वाद-विवाद के संदर्भ में भी विचार किया जाता है। एक मत यह है कि महावीर धर्मसुधारक थे, इसलिए उन्होंने तपस्वियों के 'दिगम्बर' रहने का विरोध किया। दूसरा मत यह है कि उन्होंने ही अपरिग्रह के व्रत की स्थापना की और इसके कठोर पालन पर विशेष बल दिया। परन्तु जब हम इस बात पर सोचते हैं कि महावीर ने स्त्रियों को भी यही व्रत लेने की अनुमति दी थी, जब कि दिगम्बर सम्प्रदाय का मत था कि स्त्रियों को निर्वाण प्राप्ति नहीं हो सकती, इसके लिए पहले उन्हें पुरुष रूप में जन्म लेना होगा, तो लगता है कि इन दो मतों में पहला मत ही सही है। दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों में आचरण की दृष्टि से काफी अन्तर है, परन्तु प्रायः सभी यह स्वीकार करते हैं कि तस्वदृष्टि से दोनों में विशेष अन्तर नहीं है । और, महावीर ने अपने युग की बदली हुई परिस्थितियों के अनुरूप पार्श्व के उपदेशों में परिवर्तन भी किया। अतः इन बातों से यही सही जान पड़ता है कि महावीर ने अपरिग्रह के व्रत को इतना कठोर नही बनाया। जैन साहित्य से जानकारी मिलती है कि महावीर के समय में नैतिक आचरण में शिथिलता आ गयी थी और इसके बारे में वे बड़े चिंतातुर थे, इसलिए हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि उनके द्वारा जोड़ा गया पांचवां व्रत अपरिग्रह नहीं बल्कि ब्रह्मचर्य है। 18 अन्त में, दोनों तीर्थंकरों के बीच की एक और समानता का उल्लेख करना जरूरी है। यह समानता संघ के संगठन के बारे में है। दोनों इस बात से सहमत के कि भिक्ष, तथा भिक्षणी और गृहस्थ तथा गृहिणी दोनों का संघ में समावेश 7. XXIII. 24 8. बही, XXII1-23-31 9. उमेश मिश्र, पू० पृ० 230 इस विज्ञान का भी यही मत है कि महावीर ने नैतिक आचरण को सर्वाधिक महत्व दिया। "उनका मत था कि परम सत्य की प्राप्ति के लिए सम्यक आचरणों का कठोरता से पालन करते हुए शरीर व मन को शुद्ध रखना अत्यन्त जरूरी है।" (वही, पृ० 231)
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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