SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाव और महावीर बारे में उल्लेख मिलते हैं। उत्तराध्ययन में उल्लिखित 'दो रूपों के बारे में याकोबी का मत है-"अन्य में वर्णित वाद-विवाद से पता चलता है कि पारवं और महावीर के बीच के काल में श्रमण संघ के आचरण-धर्म में शिथिलताबा गयी थी। क्योंकि पार्श्व के बाद काफी समय गुजर जाने पर ही ऐसा होना संभव था, इसलिए यह परम्परा सही जान पड़ती है कि महावीर पार्श्व के 250 वर्ष बाद हुए। व्रतों की सूची में ब्रह्मचर्य का समावेश करने के बारे में याकोबी का जो मत है, उसे सामान्यतः स्वीकार कर लिया जाता है। परन्तु यह भी एक मत है कि जैनों के आजीवक सम्प्रदाय के संस्थापक गौशाल, जो कि महावीर के एक शिष्य थे, दुराचारी बन गये थे और उनके जीवन-काल में ही जैन धर्म की आलो. चना करने लग गये थे, इसलिए महावीर ने व्रतों की सूची में विशेष रूप से ब्रह्मचर्य का समावेश किया। यह भी एक मत है कि महावीर द्वारा जोड़ा गया नया व्रत ब्रह्मचर्य नहीं बल्कि अपरिग्रह है, और महावीर अवसन विचरण करते थे। इस मतवालों का कहना है कि, महावीर ने यह अनुभव किया कि वस्त्रों के बन्धन से मुक्त होने के बाद ही तपस्वी तृष्णाओं से मुक्ति पा सकता है । अपरिग्रह का अर्थ है-घर और सगे-सम्बन्धियों का त्याग करना, और अपनी जीविका के लिए भी पास कुछ न रखना । एक और मत यह भी है कि महावीर ने ब्रह्मचर्य के साथ-साथ अपरिग्रह पर भी विशेष बल दिया । जैसे, उमेश मिश्र ने लिखा है : "महावीर ने ब्रह्मचर्य का समावेश तपस्वियों के लिए भी किया। वे समझते थे कि तपस्वी को अपनी इंद्रियों एवं वृत्तियों पर पूरी तरह काबू पा लेना चाहिए और इस संसार में पूर्णतः निलिप्त रहना चाहिए, और इसलिए अपने वस्त्र भी त्याग देने चाहिए। महावीर का संभवत: यह मत था कि तपस्वी जब तक वस्त्रों के बन्धन से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक वह सही माने में निलिप्त नहीं हो सकता।" जैन ग्रन्थों में यद्यपि पाव और महावीर के मतों के बीच के अन्तर के बारे में उल्लेख मिलते हैं, परन्तु यह बात महत्त्व की है कि उत्तराध्ययन के अनुसार दोनों मतों में तत्त्वतः कोई अन्तर नहीं है । प्रसंग है कि पापित्यिक कैशी महावीर के एक शिष्य सुधर्म-गौतम से पंचवत धर्म की विशेषता के बारे में जानना चाहते हैं। वह पूछते हैं : "दोनों धर्मों का उद्देश्य एक ही है, तो फिर यह अन्तर क्यों? 4.XXIII,23416 5. देखिये 'उसराध्ययन' का उनका अनुवाद,XXIII, 26 की पावटिप्पणी 6. 'हिस्ट्री ऑफ इंडियन फिलॉसफी' (इलाहाबाद : तिरभुक्ति पब्लिकेशन्स, 1957), खण्ड प्रथम, 1.230
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy