SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 172 जैन दर्शन अणुगत संघ ने अपने कार्यक्रम में 84 व्रतों का समावेश किया था। संघ अभी शैशवावस्था में था और उन लोगों के अनुभवों का भी ध्यान रखना चाहता था जिनके हित के लिए इसकी स्थापना हुई थी, इसलिए यह काफी लचीला था और इसमें कुछ परिवर्तन के लिए काफी स्थान था।स्थापना के पांच वर्ष बाद इस आंदोलन का पूरा डांचा ही बदल दिया गया। आचार्य ने सोच-विचार कर अगुबत संघ का नाम अणुवत आंदोलन रख दिया। यह नया नाम इसलिए पसंद किया गया कि यह पहले नाम से अधिक व्यापक उद्देश्य तथा दृष्टिकोण का परिचायक है। यह आंदोलन केवल भारत में ही सीमित नहीं रहा । एक प्रसिद्ध अमरीकी साप्ताहिक ने इस आंदोलन में रुचि लेकर परमाणविक नेता (एटामिक बॉस) शीर्षक के अन्तर्गत लिखा है : "अन्य विविध स्थानों के कुछ व्यक्तियों की तरह यहां भारत में पतला-दुबला, नाटे कद का, परन्तु चमकती आंखों वाला एक आदमी है जो संसार की वर्तमान स्थिति से बड़ा चितित है । उसका नाम है तुलसी, आयु 34, और वह जैन तेरापंथ का उपदेशक है। यह धार्मिक आंदोलन अहिंसावादी है। आचार्य तुलसी ने अणुव्रत संघ की स्थापना 1949 ई० में की थी। जब उन्हें सभी भारतीयों को व्रत दिलाने में सफलता मिल जायेगी, तो उनकी योजना बाकी संसार को भी बदलने की है, ताकि लोग एक व्रती का जीवन बिता सकें।" ___ आंदोलन के संस्थापक का कहना है कि अन्य धर्मों के प्रति इस आंदोलन का दृष्टिकोण सद्भावना तथा सहनशीलता का है। उनकी दृष्टि में, कि इस आंदोलन के मूल सिद्धांत सार्वभौमिक हैं, इसलिए किसी धर्म के अनुयायी इसके सदस्य बन सकते हैं और इसके आदर्शों को अपना सकते हैं। अणुव्रत आंदोलन के स्वरूप एवं विस्तार के सार्वभौमिक होने के बारे में आपत्ति स्वाभाविक है। आचार्य ने इसका उत्तर दिया है। आपत्ति यह है कि अणुव्रत शब्द उन जैन शिक्षाओं से लिया गया है जो अणुवती के लिए सम्यग्दर्शन की प्राप्ति आवश्यक समझती हैं। चूंकि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति जीवन में जैन आचारों को अपनाने से मानी गयी है, इसलिए अणुवती में धार्मिक सहिष्णुता एवं सार्वभौमिक दृष्टिकोण की संभावना नहीं रह जाती। आचार्य का उत्तर है : कि अहिंसावादी दृष्टिकोण अणुव्रती के दायरे तथा दर्शन भलीभांति व्यक्त करता है, इसलिए इस शब्द का थोड़े भिन्न अर्थ में प्रयोग करना जैन विचार एवं संस्कृति के प्रतिकूल नहीं है। आचार्य के मत का सार यह है कि, यह शब्द सभी धर्मों की परम्परागत धारणाओं में विद्यमान समान विचारों का द्योतक है। 3. 'टाइम न्यूयार्क, 15 मई, 1959 ई. 4. पूर्वो०, पृ. 28
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy