________________
षड्स्तरीय संघ-व्यवस्था
165 जो केवल शुद्ध ध्यान या समाधि से संभव है।
सिड: यह अनुभूतियों के परे का स्तर है। सिद्ध कार्य-कारण के स्तर से ऊपर उठ जाता है, कर्म के बन्धन से मुक्त हो जाता है। सिद्ध के बारे में कहा गया है कि वह न किसी से निर्मित होता है और न किसी का निर्माण करता है।' चूंकि सिद्ध कर्मों के बन्धन से मुक्त होता है, इसलिए वह बाह्य वस्तुओं से भी पूर्णतः मुक्त हो जाता है। इसलिए उसे न सुख का अनुभव होता है, न दुःख का। सिद्ध अनन्त परमसुख में लीन रहता है।
सिद्धपद की प्राप्ति निर्वाण की प्राप्ति के समान है। और निर्वाण की स्थिति में, निषेधात्मक रूप में कहें तो, न कोई पीड़ा होती है, न सुख, न कोई कर्म, न शुभ-अशुभ ध्यान, न क्लेश, बाधा, मृत्यु, जन्म, अनुभूति, आपत्ति, भ्रम, आश्चर्य, नींद, इच्छा, तथा क्षुधा । स्पष्ट शब्दों में कहें तो इस अवस्था में पूर्ण अन्तःस्फूर्ति, शान, परमसुख, शक्ति, द्रव्यहीनता तथा सत्ता होती है। आवारांग में सिद्ध स्थिति का वर्णन इस प्रकार है : "जहां कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं, वहां से सभी आवाजें लौट आती हैं। वहां दिमाग भी नहीं पहुंच सकता। सिद्ध बिना शरीर, बिना पुनर्जन्म तथा द्रव्य-सम्पर्क से रहित होता है। वह न स्त्रीलिंगी होता है, न पुंल्लिगी और न ही नपुंसकलिंगी। वह देखता है, जानता है, परन्तु यह सब अतुलनीय है। सिद्ध की सत्ता निराकार होती है। वह निराबद्ध होता है।"
निर्वाण पद की प्राप्ति के साथ अजीब के दुष्ट प्रभावों से अपने को मुक्त हुए देखने की जीव की अभिलाषा पूर्ण हो जाती है। यह विश्व के शिखर पर पहुंच जाता है और फिर वहां से इसका पतन नहीं होता। एक जीव द्वारा प्राप्त अवस्था के एक देदीप्यमान उदाहरण की तरह यह अन्य जीवों के लिए आदर्श बनकर चमकता है । इस प्रकार षड्स्तरीय संध-व्यवस्था का यह वर्णन, धार्मिक दृष्टि से, जीव के विभिन्न स्तरों के विकास का वर्णन है।
5. देखिये, के. सी. सोमानी, वही, प.203 6. 'पंचास्तिकाय', 36 7. 'नियमसार', 183 8. वही, 178-181 9. I.5.6.3.4