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________________ 164 जैन दर्शन एवं शुद्ध होता है कि यह चारों ओर उत्सर्जित होता रहता है । अरहन्त की महज उपस्थिति में इतनी क्षमता मानी गयी है कि उससे सैकड़ों लोग आध्यात्मपथ पर चलने लग जाते हैं और जीवन के प्रति जो संशयी एवं विकृत भाव होते हैं के नष्ट हो जाते हैं । इसलिए कहते हैं कि अर्हत् की उपस्थिति से ही परमज्ञान की प्राप्ति होती है। ___ अर्हतों के सात प्रकार हैं : पंचकल्याणधारी, तीनकल्याणधारी, दो कल्याणधारी, सामान्यकेवली, सातिशयकेवली, उपसर्गकेवली और अन्तकृत्केवली। आध्यात्मिक स्तर की दृष्टि से इनमें कोई भेद नहीं है। यहां ध्यान देने योग्य महत्त्व का भेद यही है कि प्रथम तीन को और शेष को दो वर्गों में बांटा गया है। प्रथम तीन प्रकार के अहंत तीर्थकर होते हैं, और शेष प्रकार के अर्हत् तीर्थकर नहीं होते। इन दोनों में भेद यह है कि जहां प्रथम वर्ग के अहंत संसार की माया में फंसे हुए लोगों के उद्धार के लिए धार्मिक सिद्धांतों का उपदेश (इन उपदेशों को गणधर व्यवस्थित रूप से लिखकर रखते हैं) देने में समर्थ होते हैं, वहां दूसरे वर्ग के महत् धर्म-प्रतिपादक न होकर आध्यात्मिक परमानन्द में लीन रहते हैं।' यह मान्यता सर्वविदित है कि प्रत्येक युग में केवल चौबीस तीर्थकर होते हैं। परन्तु आध्यात्मपथ के खोजकर्ता के लिए यह हताश होने की बात नहीं है, क्योंकि कहा गया है कि आगे के उच्च सिद्ध पद की प्राप्ति जो तीर्थकर नहीं उसके लिए भी संभव है। __ अर्हत् को आदर्श संत और परमगुरु माना जाता है। उसे परमात्मन् भी कहते हैं। परमात्मा या ईश्वरतत्त्व के बारे में जैन धर्म की जैसी विशिष्ट मान्यता है, उसके अनुसार अर्हतों के बारे में यह स्वाभाविक है कि वे अपने भक्तों के प्रति पक्षपात का भाव नहीं रख सकते। उपाध्ये लिखते हैं : "संसार की सृष्टि, संचालन एवं विनाश अर्हत् या सिद्ध का कार्य नहीं है। इनसे भक्तों को वर, अनुग्रह या शाप नही मिलता। भक्तजन इनकी आराधना या पूजा-अर्चना एक ऐमे आदर्श के रूप में करते हैं जहां वे स्वयं पहुंच सकें।" इसलिए अर्हत की पूजा को इस अर्थ में महत्त्व दिया गया है कि इससे भक्तों के मन में यह आशा बंध जाती है कि आध्यात्मिक उन्नति उनके लिए भी संभव है। जैसा कि सोगानी ने लिखा है, अर्हत की अवस्था का पूर्ण वर्णन शब्दों में संभव नहीं है । अहेतु के तेज को बौद्धिक या नैतिक शब्दों में पूर्ण रूप से समझ पाना संभव नहीं है । यद्यपि कभी-कभी शुद्ध निषेधात्मक वर्णन के प्रयत्न किये जाते हैं, परन्तु वे सब उन्हीं कुछ साक्षात् अनुभूतियों की ओर निर्देश करते हैं 3. के० सी० सोमानी, पूर्वो॰, पृ. 199 4.के. सी०सोगानी द्वारा उत; पूर्वो०, १0 199
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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