SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 163 पदस्तरीय संग व्यवस्था मुनि अवस्था से 'अधिक विकसित' इन पांच नवस्थानों पर संक्षेप में विचार करेंगे । aerर्य : आचार्य आध्यात्मिक गुरु होता है। वह लोगों को धर्मदीक्षा देने का अधिकार रखता है। इस संदर्भ में जैन धर्म की मान्यता हिन्दू धर्म की तरह ही है, कि दीक्षा के लिए आचार्य या गुरु की आवश्यकता होती है । आचार्य का यह कर्तव्य है कि वह अपने शिष्यों के नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन का मार्गदर्शन करें। भिक्षुसंघ का संचालन करना भी उसकी जिम्मेदारी होती है । पथभ्रष्ट शिष्यों को मार्ग पर लाना उसका ही काम है । उसे जैन धर्मग्रन्थों का तथा अन्य विद्यमान धर्मो के ग्रन्थों का अच्छा ज्ञान होना जरूरी है । यह आवश्यकता सचमुच ही बड़े महत्त्व की है। मताग्रही न होकर दूसरे विद्यमान धर्मों के सत्यों के प्रकाश में अपने धर्म के सिद्धांतों का वह अनुशीलन करता है । उपाध्याय : इसे धार्मिक उपदेश देने का अधिकार होता है। इसलिए उपाध्याय को विभिन्न धर्म ग्रन्थों का अच्छा ज्ञान होना चाहिए। उपाध्याय धर्मोपदेश तो देता है, परन्तु पथभ्रष्ट लोगों को मार्ग पर लाना उसका काम नहीं है। यह अधिकार आचार्य को दिया गया है, क्योंकि आचार्य को आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक उन्नत माना जाता है। उपाध्याय इतना उन्नत नहीं होता कि लोगों को सही मार्ग पर लाने का कार्य कर सके। संभवत: लगातार धर्मोपदेश देते रहने से वह धार्मिक सिद्धांतों की अधिकाधिक गहराई में उतरता जाता है, और इस प्रकार अन्त में दूसरों को मार्ग पर लाने का अधिकारी बन जाता है । साधु : आध्यात्मप्राप्ति के लिए निर्धारित विविध नियमों का साघु बड़ी कड़ाई से पालन करता है। उपाध्याय की तुलना में वह अधिक अन्तर्मुखी प्रवृत्ति का होता है । उसे धर्मोपदेश देना नहीं होता । सर्वप्रथम अपने व्यक्तिगत जीवन में ही विभिन्न व्रतों का पालन करने का अर्थ यह है कि दूसरों को उपदेश देने योग्य बनने के लिए पहले नैतिक नियमों के निर्धारित क्रम से गुजरना अत्यावश्यक है। नैतिक नियमों का निरंतर पालन करने से आदमी आध्यात्मिक जीवन की वास्तविक गहराई में उतरता है, और धर्मोपदेश के लिए यह आवश्यक है। इस प्रकार लोगों को धर्मोपदेश देने का काम शुरू करने के पहले इनमें उसकी गहन आस्था हो जाती है, और साधु का सतत व्रतपालन इसमें सहायक सिद्ध होता है। अरहन्त : पहले की अवस्थाओं से अरहन्त की रूप से उच्च है कि उसमें क्रोध, मान, छल, लोभ, का लेशमात्र भी शेष नहीं रह जाता। इसलिए इस अवस्था में अहिंसा के पालन को अधिक परिशुद्ध बनाया गया है। अरहन्त का आध्यात्मिक तेज इतना तीव्र अवस्था इस म.ने में विशेष आसक्ति, घृणा तथा अज्ञान
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy