________________
षड्स्तरीय संघ-व्यवस्था
28
जैन मतानुसार जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयास संन्यास ग्रहण कर लेने तक ही सीमित नहीं रहने चाहिए। जैनमत है कि परित्याग केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मुख्यतः मानसिक होता है। इसलिए अन्ततः आध्यात्मिक जीवन में पहुंचने की तैयारी काफी पहले से शुरू होती है । इसके लिए दो पकार के धर्म निश्चित किये गये हैं-भावकधर्म और मुनिधर्म । हम पहले बता चुके हैं कि विभिन्न व्रतों के पालन में श्रावक को काफी छूट दी जाती है। परन्तु मुनि को सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह, इन पांच महाव्रतों का कड़ाई से पालन करना होता है । इसमें कोई छूट नहीं दी जाती।
शरीर, मन तथा वाणी पर पूर्ण नियंत्रण पाना मुनि का लक्ष्य होना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार स्वयं को परिशुद्ध रखकर ही वह पंचमहाव्रतों का विधिवत् पालन कर सकता है। मन-वचन-काय पर इस प्रकार नियंत्रण प्राप्त करने के प्रयास को गुप्ति कहा गया है । सर्वार्थ सिद्धि के अनुसार गुप्ति वह परम साधना है जिससे जीव जीवन-मृत्यु के चक को पार कर जाता है। इस साधना में शारीरिक क्रियाओं पर विशेष ध्यान देना जरूरी होता है। चलना, बोलना, मल-मूवादि त्याग, चीजों का सावधानी से इस्तेमाल तथा शारीरिक आवश्यकताओं के बारे में संयम बरतना जरूरी होता है। इन्हें ही ईर्या समिति, भाषा समिति, उत्सर्ग समिति, आदाननिमेष समिति तथा एषना समिति कहते हैं। इन समितियों के नियमों को इसलिए आवश्यक माना गया है कि, जब तक शरीर पर नियंत्रण नहीं होता, तब तक मन के नियंत्रण के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। यहां हम इन नियमों की गहराई में नहीं उतरेंगे। यहां हम यही बताना चाहते हैं कि मुनि की आस्था श्रावक से काफी आगे होती है।
माध्यात्मिक विकास की दृष्टि से तपस्या-क्रम की पांच और श्रेणियां मानी गयी हैं। ये श्रेणियां हैं :माचार्य उपाध्याय, साधु, अरहन्त और सिड। मुनि अवस्था को मिलाकर ये सब षड्स्तरीय संघ-व्यवस्था कहलाती हैं। यहां हम
1. 'सर्विसिवि,' Ix.2 2. 'सस्वार्थसूब, IX.5