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नैतिक तत्त्व
सम्यग्ज्ञान असंभव नहीं और सम्यग्ज्ञान के अभाव में सम्यग्धारित संभव नहीं । 12 कहा गया है कि सात तत्त्वों-जीव, अजीब, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष में श्रद्धा रखना ही सम्यग्दर्शन है। जैनमत है कि इन सात तत्त्वों में श्रद्धा रखनेवाले ( सम्यक् दृष्टि वाले) व्यक्ति को सम्यग्ज्ञान होता है- सम्यक् ज्ञान आध्यात्मिक अर्थ में, और न कि केवल इसके ज्ञानमीमांसीय अर्थ में । सम्यग्ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान के रूप में, व्यक्ति को जीव की अन्तः प्रकृति को समझने में . सहायता करता है, और इससे उसे मोक्षप्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए सही कदम उठाने में सुविधा होती है। यही सम्यग्चारित है। जैन दार्शनिकों ने मोक्षप्राप्ति के लिए नैतिक-आध्यात्मिक नियमों का समग्र निरूपण किया है, यह त्रिरत्न की धारणा से स्पष्ट है। वस्तुतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यचारित्र में से किसी भी एक की अलग से सार्थक उपलब्धि संभव नहीं है, क्योंकि जीवन में आध्यात्म की प्राप्ति शुद्ध सैद्धांतिक अमूर्तता नहीं है, और न यह ऐसी सरल चीज है कि जिसका केवल अनुसरण किया जाय। इसलिए दृष्टि, ज्ञान तथा चारित्र इन तीनों को मोक्ष के लिए महत्त्व का माना गया है । जैनों ने इस बात पर बल दिया है कि सम्यग्दृष्टि के अभाव में शेष दो निष्क्रिय रह जाते हैं । यह बात समझने योग्य है, क्योंकि आधुनिक मनोविज्ञान में भी माना गया है कि 'श्रद्धा' में स्वास्थ्यलाभ की कुंजी निहित है। शारीरिक तथा मानसिक व्याधियों के बारे में यह सिद्धांत सत्य है, तो इस जैनमत को कि आध्यात्मिक 'स्वास्थ्यलाभ' भी सुझाये गये उपायों में बुनियादी श्रद्धा होने से ही संभव है, हम सिर्फ एक सैद्धान्तिक अमूर्तता या आत्मज्ञान की खोज में निकले हुए लोगों को दिया जानेवाला रूढ़िगत उपदेश नहीं मान सकते ।
12. 28-30
13. 'तस्वार्थसूल', I. 2; 'द्रव्यसंग्रह' 41
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