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________________ गुणस्थान सिद्धान्त 29 जैन दार्शनिकों ने उन विविध आध्यात्मिक दशाओं का विश्लेषण किया है, जिनमें से गुजरकर जीव मोक्षप्राप्ति करता है। ऐसी चौदह अवस्थाएं बतायी गयी हैं, जिनमें से गुजरने के बाद जीव-आत्मा या चेतना शुद्ध हो जाता है। इन अवस्थाओं को गुणस्थान कहा गया है। कभी-कभी इस गुणस्थान शब्द का प्रयोग उन स्तरों के अर्थ में भी होता है जिनमें से होते हुए जीव जीवन की सीढ़ी पर चढ़कर मुक्ति के शिखर पर पहुंच जाता है। गुणस्थान शब्द को नैतिक या धामिक चारित्र-निर्माण के सीमित अर्थ में न लेकर जीवन में आध्यात्म प्राप्ति के चरमोद्देश्य के गहन अर्थ में लेना चाहिए। रस्मवय के सिद्धान्त के अनुसार, अन्ततोगत्वा मोक्षप्राप्ति का अर्थ है - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्चारित्र की उपलब्धि । प्रत्येक जीव में इन विरत्न की प्राप्ति की क्षमता विद्यमान होती है, परन्तु यह क्षमता क्रमशः ही फलित होती है। महत्त्व की बात यह है कि यह क्षमता व्यक्ति के अपने प्रयास से ही फलित होती है। यहां हम मोक्षप्राप्ति के मार्ग के विभिन्न पड़ावों का संक्षेप में वर्णन करेंगे। अवस्था 1 : मिथ्याष्टि गुणस्थान : एक अर्थ में मोक्षप्राप्ति के मार्ग की यह वस्तुतः कोई अवस्था नहीं है। यह सीढ़ी का सबसे नीचे का पैर है । इस अवस्था में जीव आध्यात्मिक दृष्टि से अंधा होता है। व्यक्ति को सत्य तथा साधुता की पहचान नहीं होती। यह अवस्था इस माने में अन्धविश्वासपूर्ण होती है कि इसमें व्यक्ति किसी भी कोरे आकर्षक विचार को सत्य मान बैठता है। आदमी मिथ्याज्ञान में विश्वास करता है और दर्शनावरण कर्म के कारण सत्य को अस्वीकार करता है तथा असत्य को गले लगाता है । संक्षेप में, यह मिथ्यात्व की अवस्था है। अवस्था 2 : सासावन-सम्यग्दृष्टि गुणस्थान : यह जीव द्वारा अत्यल्प, सम्यग्दृष्टि प्राप्त कर लेने के बाद की अवस्था है। सामान्यत: इस अवस्थाको प्रपम स्तर से विकसित हुई अवस्था न मानकर एक ऐसी अवस्था माना जाता है जिसमें उच्च अवस्था से जीव का पतन होता है। यह उन जीवों के लिए एक प्रकार की रुकावट की अवस्था है जो उच्च स्तर से, विशेषतः सम्यक्त्व के स्तर
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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