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________________ नैतिक तत्त्व 157 मत की तरह अन्य भारतीय दर्शनों का भी यही कवन है कि संसार के पापों से बचने के लिए अच्छे-बुरे दोनों के ही प्रति अनासक्ति होना जरूरी है। आलव और बन्ध: आगे के पांच तत्वों का विवेचन न केवल महत्त्व का है, afee रोचक भी है, क्योंकि इसमें कर्म के दुष्परिणामों से मुक्ति पाने के मार्ग पर आगे बढ़ने के जैन दार्शनिकों के विचार बड़े सुस्पष्ट हैं। यहां यह जानकारी असंगत न होगी कि जीव के बन्धन की प्रक्रिया तथा मोक्षप्राप्ति के उपाय के बारे में जो जैन विचार हैं वे काफी हद तक शरीर के रोगग्रस्त होने तथा उससे मुक्ति पाने के लिए चिकित्साशास्त्र में बताये गये उपायों-जैसे हैं । मानव शरीर अपनी प्राकृतिक स्थिति में विभिन्न व्याधियों को रोकने की क्षमता रखता है । परन्तु अनेक कारणों से शरीर यह अवरोधक शक्ति खो बैठता है । इससे विभिन्न प्रकार के कीटाणुओं को शरीर में पहुंचने में और नुकसान पहुंचाने में आसानी होती है । निरोग होने का उपाय यह है कि शरीर में अबरोधक शक्ति पैदा हो, रोगोत्पादक कीटाणुओं का शरीर में पहुंचना बन्द हो और कीटाणुओं का पूर्णत: नाश हो जो शरीर में प्रवेश पा चुके हैं। जीव के बन्धन की प्रक्रिया तथा मुक्ति के उपाय भी कुछ इसी प्रकार के हैं। जीव, जो कि अपनी प्राकृतिक अवस्था में परिशुद्ध होता है, आसक्ति, द्वेष आदि की अपनी मनोदशाओं के कारण कर्माणुओं से दूषित हो जाता है। वस्तुतः कर्माणुओं द्वारा प्रभावित होने के पहले ही जीवात्मा में बदल होता है। इसे हम यूं कह सकते हैं कि आत्मा कर्म के दूषण को रोकने की शक्ति खो बैठी है और अब बुरे प्रभावों से अपनी रक्षा करने में वह समर्थ नहीं है। दूसरी अवस्था प्रम्यालय और प्रथम को भाव कहा गया है। चूंकि आत्मा में रद्दोबदल पहले होती है और इससे उसके दूषण के लिए रास्ता खुल जाता है, इसलिए बन्धन का मूल कारण भावाia ही माना गया है, न कि द्रव्यासव। अशुद्ध मनोदशा की उत्पत्ति reat, अनियमन और क्रोध, मान, लोभ आदि मनोविकारों के कारण होती है। इससे आत्मा की ओर कर्माणुओं के बहाव को प्रोत्साहन मिलता है और दूषण की प्रक्रिया। शुरू हो जाती है। इन दो प्रकार के आस्रवों के स्थान पर हमें कुछ भिन्न प्रकार के मत की भी जानकारी मिलती है। हम देखते हैं कि इन दो प्रकार के आसवों के स्थान पर केवल एक ही आस्रव तत्त्व को स्वीकार किया गया है । काय, बाकू और मन की क्रियाओं को आलब कहा गया है।' यहां यद्यपि मन और काय को एक साथ रखा गया है, फिर भी स्पष्ट है कि कर्म के प्रवाह से सम्बन्धित मान्यता वही है। काय, वाक् तथा मन की क्रियाओं से आत्मा में जो परिस्पंदन होता है, उसे योग कहा गया है । और इसे ही आस्रवों का समग्र 4. वही, VI. 1-2
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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