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जैन दर्शन
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कारण माना गया है, क्योंकि इसके अन्तर्गत अनुभवजन्य आत्माओं तथा अर्हन्तों, दोनों का ही समावेश होता है। सिद्ध इस सीमा के परे पहुंच जाते हैं, क्योंकि वे काय, वाक् तथा मन की क्रियाओं से मुक्त रहते हैं।
बन्ध भी योग के कारण हैं, परन्तु केवल योग के कारण नहीं। योग के अलावा कषायों के अनिष्ट परिणाम भी बन्ध के कारण हैं। कषाय के सहयोग से योग अधिक कर्माण ओं को आकर्षित करता है और ये कर्माण जीव को बांधते हैं।
बन्ध की भी दो अवस्थाएं हैं : भावबन्ध अवस्था और द्रव्यबन्ध अवस्था। क्रोध और मान-जैसे कषाय चेतना को आलोडित करते हैं और इससे कर्म एक खास बन्ध को जन्म देता है, जिसे भावबन्ध कहा गया है। इसके बाद कर्माणु जीव के वास्तविक सम्पर्क में आते है और इससे द्रव्यबन्ध की अवस्था पैदा होती है।
बन्ध के चार प्रकार बताये गये हैं : प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध। इनमें से पहले का जन्म तब होता है जब जीव की स्पन्दन क्रिया से द्रव्य कर्माणु ओं में रूपान्तरित होता है। इसके आठ प्रमुख भेद हैं, और इनकी चर्चा हम पहले कर चुके है। तार्किक दृष्टि से दूसरा बन्ध प्रदेशबन्ध है। जीव का एक बार विभिन्न प्रकार के कर्माणुओं के प्रति लगाव पैदा हो जाता है तो ये कर्माणु आत्मा के विभिन्न प्रदेशों में स्थान ग्रहण कर लेते हैं, और इस प्रकार कर्मबन्ध से मुक्त होना आत्मा के लिए लगभग असंभव हो जाता है। यह
और पहले प्रकार का बन्ध योग के कारण है। तीसरे प्रकार को स्थितिबन्ध कहते हैं। इसके अन्तर्गत कर्माग ओं का लगातार प्रवेश होता है और दूषण एक निश्चित अवधि के बाद होता है। कर्माणु ओं के निरंतर बहाव के कारण उनमें फलित होने की क्षमता पैदा हो जाती है और इससे ही जीव को विभिन्न प्रकार के अनुभव होते हैं। विविध कालावधियों से जन्य विभिन्न क्षमताओं से ही अनुभवों में तीव्रता एवं मन्दता जन्म लेती है। इसी को अनुमागबन्ध कहते हैं। तीसरे तथा चौथे प्रकार के बन्धों का जन्म कषायों से होता है।
संबरः जीव के दूषण को दूर करने के लिए कर्माणुओं के बहाव बदलने की जो प्रक्रिया है, उसका नाम संवर है ।' आस्रव की तरह संवर के भी दो प्रकार हैं :
5. के. सी० सोगानी, पूर्वो०,1047 6. 'तत्वार्य-सूव',VIII. 2-3 7. 'सर्वार्थ सिति', VIII. 3 8. वही 9. 'तत्त्वार्थसून', 1x.1