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________________ जैन दर्शन 156 स्थितियों के स्रोत पहले जन्म के किसी भी पूर्वजन्म के-कर्मों में खोजते हैं। ___अत: दुःखी आदमी यदि सुखी जीवन बिताना चाहता है तो उसे चाहिए कि वह दुराचरण को त्याग दे और मदाचरण का मार्ग अपनाये। यहां यह स्पष्ट है कि व्यक्ति को केवल सदाचरण से ही मुक्ति नहीं मिलती। चंकि मोक्षप्राप्ति का अर्थ है जीवन और मृत्यु के चक्र से पूर्णतः मुक्ति, इसलिए स्पष्टत: यह पाप और पुण्य से परे है। अर्थात्, मुक्तिप्राप्त मनुष्य भले-बुरे के दायरे के बाहर चला जाता है। चूंकि भले-बुरे आचरण का सम्बन्ध पूर्वकर्मों से होता है और भले या बुरे कार्य को करने की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, इसलिए कहा गया है कि ये कर्म जीव को एक प्रकार से बांधते हैं और मुक्ति को सीमित बनाते हैं। ____ अच्छे कर्म के उदाहरण हैं : सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति, मुनियों के प्रति श्रद्धाभाव और व्रतों का पालन । परिणामतः व्यक्ति को साता बेदनीय यानी सुखानुभव, शुभ आयु, शुभ नाम तथा गोत्र की प्राप्ति होती है।' बुरे कर्म हैं : मिथ्या श्रद्धा, मिथ्या ज्ञान, हिंसा वृत्ति, झूठ बोलना, भोगवृत्ति तथा आसक्ति; संक्षेप में वे कर्म जिनका उदय पंचवतों का पालन न करने से होता है। इनसे व्यक्ति को मसाता वेदनीय यानी दुःखानुभव, अशुभ आयु, अशुभ नाम तथा अशुभ गोत्र की प्राप्ति होती है।' इसलिए जैन दार्शनिकों का मत है कि सदाचारी जीवन दुराचारी जीवन से बेहतर है। परन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि सुखी तथा स्वस्थ जीवन और दीर्घायु आदि मिलने से परिपूर्णता को प्राप्त करने में सुविधा होती है, यानी जीव को अजीव के दूषण से मुक्त करने की समस्या के हल की संभावना बढ़ जाती है। यहां व्यक्ति अपनी दृष्टि से कह सकता है कि अनुकूल परिस्थितियों में मुक्ति की प्राप्ति पर अधिकाधिक ध्यान दिया जा सकता है। परन्तु जैन मतानुसार मनुष्य का ध्येय मात्र मुक्ति न होकर जीव की मुक्ति है। अत: चरम लक्ष्य है-जीव को अजीव से मुक्त करना। केवल सुखभोग की सुविधा होने से यह संभव नहीं है -फिर यह सुखभोग दुःखभोगियों के लिए भले ही माने रखता हो। इसलिए स्पष्ट उपदेश यह है कि, चूंकि अच्छे और बुरे दोनों ही प्रकार के कर्मों का मूल कारण आसक्ति है और दोनों ही प्रकार के कर्म व्यक्ति को बांधे रखते हैं,यानी फलप्राप्ति के लिए उसे अनगिनत जन्म लेने पड़ते हैं, इसलिए मोक्षप्राप्ति की चाह रखने वाले व्यक्ति का ध्येय अनासक्ति को बढ़ाता होना चाहिए। ऐसा करने से ही व्यक्ति मुक्तिपथ पर आगे बढ़ता है । इस जैन-- 1. इसका विवंचन अठारहवें प्रकरण में किया जा चुका है। 2. 'तत्त्वार्धसूत्र', VIII. 25 3. वही, VIII. 26
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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