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________________ नैतिक तत्त्व 27 यह सर्वविदित है कि हर दर्शन में तत्त्वमीमांसीय तथा नैतिक तत्त्वों का निकट का सम्बन्ध रहता है, विशेषत: 'उच्चतर नैतिकता' को महत्त्व दिये जाने पर। इनके पारस्परिक सम्बन्ध को व्यक्त करने के लिए प्राय: 'नीतिशास्त्र के तात्त्विक मूलाधार' शब्दों का प्रयोग किया जाता है । जैन दर्शन में भी नैतिक तत्त्वों पर स्वतंत्र एवं विस्तृत रूप से विचार किया गया है। जैन दर्शन में नी नैतिक तत्त्वों को स्वीकार किया गया है : जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष। तत्त्वमीमांसीय तथा नैतिक तत्वों का निकट का सम्बन्ध सुस्पष्ट है। हम देखते हैं कि जीव तथा अजीव तत्वों का समावेश दोनों में किया गया है। तत्वमीमांसीय जीव तथा अजीव तत्त्वों पर विचार करते समय हमने देखा कि जैनमत के अनुसार इन दो तत्त्वों के निकट आकर मिल-जुल जाने से ही संसार यानी जीवन-चक्र का उदय होता है और लगता है कि जीवन-मृत्यु के इस चक्र का कोई अन्त नहीं है। यद्यपि यह बताया गया है कि इन दो नित्य एवं स्वतंत्र तत्त्वों के निकट आने से चेतना की शुद्धता नष्ट हो जाती है, परन्तु हमने अभी परिवर्तन की उस प्रक्रिया का विवेचन नहीं किया है जिसके अन्तर्गत जीव की स्वतंत्र सत्ता लुप्त हो जाती है। इसी प्रकार, यह भी देखना है कि जीव तथा अजीव के संयोजन से नष्ट हुई चेतना की शुद्धता को किस प्रकार पुन: प्राप्त किया जा सकता है। नैतिक तत्त्वों का विवेचन करते हुए जैन दार्शनिकों ने इन दो बातों पर सुचारु रूप से विचार किया है : स्वतंत्र जीव किस प्रकार बन्धन में फंस जाता है और यह अपनी खोयी हुई स्वतंत्रता किस प्रकार प्राप्त करता है। चूंकि जीव तथा अजीव के बारे में हम पहले विचार कर चुके हैं, इसलिए अब यहाँ शेष सात तत्त्वों का ही विवेचन करेंगे। पुष्य और पाप : इन्हें क्रमशः अच्छे तथा बुरे कर्मों का परिणाम माना गया है। जो आदमी दुखी है वह सोचता है कि सुखी आदमी बड़े मजे में है परन्तु कहा गया है कि अन्तत: एक की स्थिति दूसरे से बेहतर नहीं होती, क्योंकि दोनों ही संसार-चक्र में फंसे होते हैं। जैन दार्शनिक इन दोनों आदमियों की परि.
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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