________________
154
·
जैन दर्शन
ag: इसके चार भेद हैं और ये जीव की चार गतियों-देव, नरक, मनुष्य तथा तिर्यच् — में आयु का निर्धारण करते हैं। इसलिए इन्हें बेबरयु, नरकायु, मनुष्यायु तथा तिचायु कहते हैं।"
नाम : इसके 103 भेद हैं। इन्हें अधिकतर निर्धारित क्रम में चार वर्गों में बांटा जाता है। प्रकृति जिसके 75 भेद हैं, प्रत्येयप्रकृति जिसके 8 भेद हैं, ae are जिसके दस भेद हैं और स्थावर दशक जिसके दस भेद हैं। इन चार वर्गों के कुछ उदाहरण यहां दिये जाते हैं। मजबूत जोड़, शरीर का संतुलन तथा सुगठित चेहरा - ये प्रथम वर्ग के कुछ उदाहरण हैं। श्रेष्ठता की भावना, धर्मस्थापना की क्षमता, आदि दूसरे वर्ग के कुछ उदाहरण हैं। खूबसूरत शरीर, मधुर वाणी तथा सहानुभूति का भाव - ये सब तीसरे प्रकार के कर्म के कारण हैं। किसी मनुष्य का भद्दा चेहरा, कटु स्वभाव तथा कर्कश वाणी – ये सब चौथे प्रकार के कर्म के कारण हैं ।
गोत्र : यह कर्म उस कुल से सम्बन्धित है जिसमें व्यक्ति का जन्म होता है । इसके दो भेद हैं : जिस कुल में लोकपूजित आचरण की परम्परा है उसे उच्चगोत्र कहते हैं, और जिसमें लोकनिन्वित आचरण की परम्परा है, उसे नीचगोत्र कहा गया है।
6. वही, 1.23
7. ग्लासन्नप, पूर्वो० पु० 11
8. 'कर्मग्रन्थ' I. 52
9. बद्दी
अन्तराय : इसके पांच भेद हैं और ये मनुष्य के स्वकीय पराक्रम के विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं। ये पांच भेद हैं बानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वोर्यान्तराय । क्रमश: ये दान, लाभ, भोग, भोग की परिस्थिति तथा इच्छाशक्ति के विकास में बाधक होते हैं ।'
अन्त में यह समझ लेना जरूरी है कि इन विभिन्न कर्मों लिए व्यक्ति स्वयं जिम्मेदार होता है और ये बाहर से उस पर लादे नहीं जाते । अतः जिम्मेदारी व्यक्ति की ही होती है, इसमें देव जैसी कोई बात नहीं होती । व्यक्ति के भौतिक जीवन से सम्बन्धित कर्मों पर विचार करने से स्पष्ट होता है कि इनका निर्धारण व्यक्ति के शारीरिक क्रियाकलापों से होता है, तो मानसिक तथा आध्यात्मिक क्रियाकलापों के बारे में यह बात और भी अधिक सही है। जैनों के कर्म सिद्धान्त का यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति ही अपने भाग्य के लिए जिम्मेदार होता है।