SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म सिमान्त 153. की मावा भी कम होगी। इसी स्थिति को ध्यान में रखकर कहा जाता है कि कर्म को त्यागने से मोक्ष प्राप्त करने में सहायता मिलती है। परन्तु कि यह माना जाता है कि विकारों के कारण ही बन्धन है, इसलिए कहा गया है कि यदि बिना विकारों के कर्म किये जायं तो वे व्यक्ति को नहीं बांधते । कर्म सिवान्त के इस तीसरे स्वरूप को प्रदेशबन्ध कहा गया है। गर्म प्रकृति का चौथा स्वरूप यह है कि इसके 8 प्रकार और 158 उपप्रकार हैं। आठ मुख्य प्रकार ये हैं : ज्ञानाबरण, पर्शनावरक, बेवनीम, मोहनीय, मायु, नाम, गोल तथा अन्तराय। इनमें से पहले चार कर्म जीव के गुणों के विकास में बाधक होते हैं, इसलिए इन्हें पाति कहते हैं। और शेष कम बाधक नहीं होते, इसलिए अघाति कहे गये हैं। अब हम विभिन्न प्रकार के कर्मों के भेदों पर विचार करेंगे। मानावरण : चूंकि शाम पांच प्रकार का है, इसलिए जानावरण कर्म के भी पांच प्रकार हैं। वे मति, भूत, अवधि, मन:पर्यय तथा केवलमानका आवरण कहलाते हैं। दर्शनावरण : इसकी नौ उत्तर-प्रकृतियां हैं। प्रथम चार, चार प्रकार के दर्शन से सम्बन्धित हैं और शेष पांच प्रकार की निद्रा से। प्रथम प्रकार के कर्म से नेन्द्रिय की दर्शनशक्ति क्षीण होती है, इसलिए इसे बनीमावरणीय कर्म कहते हैं । प्रधा दर्शनावरणीय कर्म से शेष इन्द्रियों की शक्ति मन्द पड़ जाती है। अवधि तथा केवल दर्शनावरणीय कर्मा द्वारा उन-उन दर्शनों के विकास में बाधा उपस्थित होती है। आगे के पांच र्म हलकी निद्रा, गहरी निद्रा, चलतेफिरते समय को निद्रा, चलते-फिरते समय की गाढ़तर निद्रा तथा निद्राचार हैं और क्रमश: निशा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रबला-प्रचला तथा स्त्यानदि कहलाते हैं। वेदनीय : इसके दो भेद हैं । जो जीव को सुख का अनुभव कराता है उसे साता वेदनीय कर्म कहते हैं और जो दुःख का अनुभव कराता है उसे असाता वेदनीय कर्म कहते हैं। मोहनीय : इसके 28 भेद हैं। परन्तु मुख्य भेद दो हैं -बन मोहनीष और चारित मोहनीय, जो क्रमश: दर्शन तथा चारित्र में दूषण उत्पन्न करते हैं। पहले के तीन उपभेद हैं और दूसरे के पच्चीस । 2. वही, I. 4.9 3. वही, I. 10-12 4. वही, 1. 12 5.बही, 1.14-22
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy