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जैन दर्शन
सभी अनुभवों के लिए जिम्मेवार मानने का अर्थ होगा : (1) अनुभव केवल सचेतन जीव के हैं, (2) अनुभव इन दो सत्ताओं के संयोग, संयोजन तथा सम्मिश्रण के कारण हैं, और (3) जब अनुभव नहीं होते तब जीव के लिए कोई सीमा निर्धारित नहीं रहती। जैन दार्शनिकों का तर्क है कि, अपने अनुभवों से हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि कर्मद्रव्य शुद्ध आत्मा से मिल गया है और यह जीव की चेतना की शुद्धता निर्धारित करता है। कर्म के दुष्ट प्रभाव अन्तर्गत आत्मा, जो कि विशुद्ध एवं असीम क्षमताओंवाली होती है, अपने को 'सीमित' अनुभव करती है। आत्मा को कर्म के इस विपरीत प्रभाव से मुक्त करना मोक्ष पाने के लिए अनिवार्य शर्त है, और मोक्षप्राप्ति जीवन का चरमोद्देश्य है ।
जीब दो प्रकार के कर्मों से बंधता है—भौतिक तथा मानसिक । पहले प्रकार के कर्म का यह अर्थ है कि द्रव्य का आत्मा में प्रवेश हो गया है और दूसरे प्रकार के अन्तर्गत इच्छा तथा अनिच्छा-जैसी वेतन (मानसिक) क्रियाओं का समावेश होता है । इन दो प्रकार के कर्मों को एक-दूसरे के लिए विशेष रूप से जिम्मेदार माना जाता है ।
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कहा गया है कि कर्मा मनुष्यों को विभिन्न कालावधियों के लिए बांधकर रखते हैं। यही कारण है कि अच्छे तथा बुरे दोनों ही प्रकार के अनुभवों की कालावधि न्यूनाधिक होती है। महत्त्व की बात यह है कि कर्माणु जीव को चाहे जितने समय के लिए प्रभावित करते रहें, जैनों की दृढ़ मान्यता है कि जीव अपने को कर्म के बन्धन से मुक्त कर सकता है। इस समय को कर्मों का स्थितिबन्ध कहते हैं।
जीवात्मा को प्रभावित करनेवाले कर्म व्यक्ति के तत्सम्बन्धी भावों तथा कार्यों की तीव्रता पर निर्भर करते हैं। व्यक्ति जितना ही अधिक उलझा होगा, उसकी जितनी ही अधिक आसक्ति होगी, कर्म की बन्धनशक्ति भी उतनी ही अधिक होगी। इसी प्रकार, क्रिया की शक्ति के अनुसार कर्म के प्रभाव से होने वाला अनुभव भी मन्द या तीव्र हो सकता है। कर्म के इस पक्ष को अनुभाग बन्ध कहते हैं ।
कर्म की भौतिक धारणा का स्वाभाविक अर्थ यह है कि कर्म की मात्रा जीव को एक नियत समय में प्रभावित करती है। चूंकि कर्माण जीवात्मा को दूषित करते हैं, इसलिए जैन दार्शनिकों की मान्यता है कि जीवात्मा उन कर्माणुओं को ' आकर्षित करती है जो इसके निकट रहते हैं। यह आकर्षण स्वयं जीवात्मा की क्रियाशीलता पर निर्भर करता है। जीवात्मा की क्रियाशीलता जितनी ही अधिक होगी, इसके द्वारा आकर्षित कर्म की मात्रा उतनी ही अधिक होगी। उसी प्रकार, जीवात्मा की क्रियाशीलता कम हो तो उसके द्वारा आकर्षित कर्माओं