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कर्म सिद्धान्त
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arafat को छोड़कर शेष सभी भारतीय दर्शन कर्म सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं । सामान्यतः कर्म सिद्धान्त का उदय मानव जीवन में घटित होनेवाली विविध घटनाओं की व्याख्या करनेवाले कार्य-कारण सम्बन्ध में होता है । विभिन्न विचारधाराओं में कर्म शब्द के किये गये सूक्ष्म अर्थ भिन्न हैं। यहां हमें हिन्दू दर्शन तथा जैन दर्शन की कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी मान्यताओं के बारे में ही विचार करना है । अन्य भारतीय दर्शनों में कर्म को क्रिया के अर्थ में लिया है, यद्यपि इस क्रिया शब्द के भी भिन्न-भिन्न अर्थ किये गये हैं। जैन दार्शनिक कर्म शब्द की सर्वथा भौतिक व्याख्या करते हैं। जैन दार्शनिकों के अनुसार इन्द्रियों द्वारा अगोचर अतिसूक्ष्म परमाणुओं के समूह का नाम कर्म है ।
कर्म की भौतिक प्रकृति के समर्थन में जैन दार्शनिकों ने जो तर्क पेश किये हैं, वे बड़े रोचक हैं। माना गया है कि यदि कार्य भौतिक स्वरूप का है, तो कारण भी भौतिक स्वरूप का होना चाहिए। उदाहरणार्थ, जिन परमाणुओं से विश्व की वस्तुएं बनी हैं उन्हें वस्तुओं के 'कारण' माना जा सकता है, और परमाणुओं को भौतिक तत्त्व मान लेने पर वस्तुओं के कारणों को भी भौतिक मानना होगा। जैनों की इस मान्यता के विरुद्ध उठायी जानेवाली पहली आपत्ति यह है कि, सुख, दुःख, प्रमोद तथा पीड़ा-जैसे अनुभव शुद्ध रूप से मानसिक हैं, इसलिए इनके कारण भी मानसिक यानी अभौतिक होने चाहिए। जैनों का उत्तर है कि ये अनुभव शारीरिक कारणों से सर्वथा स्वतन्त्र नहीं हैं, क्योंकि सुख, दुःख इत्यादि अनुभव, उदाहरणार्थ, भोजन आदि से सम्बन्धित होते हैं । अभौतिक सत्ता के साथ सुख आदि का कोई अनुभव नहीं होता, जैसे कि आकाश के साथ ।' अतः यह माना गया है कि इन अनुभवों के पीछे 'प्राकृतिक कारण' हैं, और यही कर्म है। इसी अर्थ में सभी मानवीय अनुभवों के लिए सुखद या दुखद तथा पसंद या नापसंद-कर्म जिम्मेवार हैं।
चूंकि जैनों का द्वैतवाद जीव तथा अजीव सत्ताओं अभौतिक तथा भौतिक या निराकार तथा साकार को स्वीकार करता है, इसलिए कर्म को
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1. 'कर्म', I. 3