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जन दर्शन
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जाता है कि वह इन सबको अपनी सम्पत्ति समझ बैठता है। परन्तु सच्चे तपस्वी को ऐसा जीवन बिताना चाहिए कि वह सब वस्तुओं को, यहां तक कि अपने शरीर तथा मन को भी, मोक्ष के मार्ग की बाधा समझे।
गृहस्थ के लिए अपरिग्रह व्रत का अर्थ है आवश्यकता से अधिक का संग्रह करने की चाह न रखना। गृहस्थ के संदर्भ में जैन दार्शनिकों ने अपरिग्रह व्रत के बारे में जो ढील दी है उसका कारण यह है कि इस व्रत का कठोर पालन समाज के हित में न होगा। पेशा चाहे कोई भी हो, इस व्रत के पालन का अर्थ होगा अपने कर्तव्य का न केवल कुशलता से, बल्कि ईमानदारी से भी पालन करना। उदाहरण के लिए, व्यापारी के संदर्भ में कुशलता का अर्थ होगा व्यापार के नियमों की जानकारी तथा उनका सही इस्तेमाल, जिससे आर्थिक साधनों में वृद्धि होती है। व्यापारी द्वारा ईमानदारी बरतने का अर्थ है अपने धंधे को व्यक्तिगत सुख तथा समाज-कल्याण का साधन समझना । अपने पेशे में उचित अथवा नैतिक तरीकों को अपनाकर व्यापारी महत्तम लाभ उठाते हुए समाज की मेवा कर सकता है। ___ व्यापक रूप से जीवन के प्रति त्याग की यह भावना, जिसे अन्ततोगत्वा आदमी को अपनाना होता है, सामान्य जीवन बितानेवाले गृहस्थ द्वारा भी व्यवहार में लायी जा सकती है। अन्त में मनुष्य को अपनी सारी तृष्णाएं त्यागनी होती हैं और अपनी आत्मा को शुद्ध बनाना होता है । इसलिए दैनन्दिन जीवन में अपरिग्रह व्रत का पालन करने का मतलब है अपनी इच्छाओं पर संयम से अंकुश रखना। गृहस्थ द्वारा पालन किये जानेवाले इस व्रत को परिमित अपरिमह कहते हैं।
इस प्रकार, ये पांच महावत अपनी ही आत्मा की खोज में निकले हुए व्यक्ति के लिए पथप्रदर्शक स्तंभ हैं। इन व्रतों में पाया जानेवाला समग्र रूप इस तथ्य में निहित है कि सभी व्रत अंततोगत्वा अहिंसा के व्रत में ही समा जाते हैं। जैनों का मत है कि इन समग्र व्रतों का पालन करने से परिपूर्ण व्यक्तित्व की प्राप्ति में सहायता मिलती है।