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नैतिक नियम
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दाम का कारण यह है कि वह वस्तु अनुचित ढंग से प्राप्त की गयी है । भूमिगत तथा अनधिकृत सम्पत्ति, जो कि राजा की होती है गृहस्थ को नहीं लेनी चाहिए: ऐसी सम्पत्ति की सूचना उसे राजा को तुरंत देनी चाहिए।
ब्रह्मचर्य
तपस्वी के संदर्भ में इस व्रत का अर्थ है संभोग से पूर्णतः विरत रहना । संभोग के कर्म से तो विरत रहने को कहा ही गया है, परन्तु संभोग से संबंधित विचार भी उस कर्म की तरह अवांछनीय तथा अनैतिक माने गये थे। ब्रह्मचर्य के व्रत के लिए भी विचार, वाचा तथा कर्म इन तीनों के सहयोग के सिद्धान्त को आवश्यक समझा गया था।
गृहस्थ के संदर्भ में, जैसा कि स्पष्ट है, इस व्रत का शाब्दिक एवं कठोर रूप में पालन संभव नहीं है। संभोग से विरत रहने का यदि कठोरता से पालन किया जाय तो व्यक्ति के लिए घर-परिवार का कोई अर्थ ही नहीं रह जायगा । जैन दार्शनिक समस्या के इस पहलू से आंखें मूंदे हुए नहीं थे। इसलिए उन्होंने सुझाया कि गृहस्थ द्वारा एक पत्नी व्रत का पालन करने से इस व्रत का पालन हो जाता है। गृहस्थ द्वारा ब्रह्मचर्य का पालन किये जाने का अर्थ है अपनी पत्नी ( या पति) के प्रति पूर्णतः वफादार होना । दूसरी स्त्री ( या पुरुष ) के बारे में सोचने मात्र से इस व्रत को क्षति पहुंचती है। एकपत्नी या एकपति व्रत संभोग की शुद्धता का द्योतक है; इससे उस व्यक्ति के तथा परिवार के जीवन में सुख व्याप्त रहता है ।
अपरिग्रह
स्पष्टतः यह व्रत मुनियों के लिए है, क्योंकि प्रव्रजित होने के पहले उन्हें अपनी सारी सम्पत्ति तथा धन को त्यागना होता है । परन्तु केवल भौतिक त्याग का कोई माने नहीं है । उसे त्यागी हुई वस्तुओं का तनिक भी स्मरण नहीं होना चाहिए। चूंकि उन वस्तुओं के साथ उसका सतत सम्पर्क रहा है, इसलिए पहले की वस्तुओं की यादें उसके दिमाग में मंडराते रहने की काफी संभावना रहती है । अतः तपस्वी को चाहिए कि वह पुरानी त्यागी हुई वस्तुओं का स्मरण न होने दे।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होगा कि अपरिग्रह के संदर्भ में यद्यपि मुख्यतः सम्पत्ति एवं धन का उल्लेख किया गया है, लेकिन वस्तुतः इस व्रत को जीवन के प्रति एक विशिष्ट दृष्टिकोण अपनाने तक बढ़ाया जा सकता है। मनुष्य का अपने घर-परिवार तथा सम्बन्धित वस्तुओं के प्रति इतना अधिक मोह बढ़