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________________ अजीब 129 अत: यह कहा जा सकता है कि वास्तविकता के तादात्म्य तत्व के दर्शन हमें चरम घटकों यानी परमाणुओं में होते हैं, और स्कन्ध में इनके संयोजन तथा स्कन्ध के विभाजन तथा संयोजन में हम परिवर्तन तस्व के दर्शन करते हैं । धर्म : यह गति का तत्त्व है, और समस्त लोक में व्याप्त है। यह तत्व स्वयं वस्तुओं को गति नहीं देता, परन्तु विश्व की वस्तुओं की गति के लिए इसकी अत्यावश्यकता है । यह स्वयं गतिशील नहीं है, केवल गति का माध्यम है। मेहता लिखते हैं: "गति का यह माध्यम स्वयं गति पैदा नहीं करता, परन्तु उन्हें मदद करता है जिनमें गति की क्षमता होती है, जिस प्रकार जल मछली के गमनागमन में सहायक बनता है। जब जीवास्तिकाय - पुद्गलास्तिकाय गतिशील होते हैं, तो धर्मास्तिकाय उन्हें मदद करते हैं। धर्म यानी गति का यह माध्यम अजीवद्रव्य है, और चेतनारहित होता है ।' पुद्गल की तरह धर्म के पंचेन्द्रिय गुण नहीं होते । अस्तित्व इसकी विशेषता है, इसलिए इसे उदभूत नहीं माना जाता। अनुभववादी दृष्टि से इसके अनंत दिक्-बिन्दु यानी प्रवेश माने गये हैं, हालांकि अनुभवातीत दृष्टि से इसके एक ही प्रदेश की कल्पना की गयी है । अधर्म : यह स्थिरता का तत्व है, और सर्वत्र व्याप्त है। यह जीव तथा पुद्गल के रुकने में सहायता देता है। इसी तत्त्व के कारण गतिशील पिण्डों को आराम करने का अवसर मिलता है। यह सक्रिय रूप से गति में बाधा नहीं डालता। इस माने में यह पृथ्वी की तरह है, जो इस पर विद्यमान वस्तुओं के लिए एक विश्रामस्थली है। यह विश्राम चाहनेवाली वस्तुओं की गति में oniac नहीं डालती । धर्म की तरह अधर्म में भी पंचेन्द्रिय गुणों का अभाव होता है । अधर्म में भी अनन्त प्रदेश माने गये हैं, परन्तु यह केवल अनुभववादी दृष्टि से ही सत्य है । अनुभवातीत दृष्टि से इसमें एक ही प्रदेश को माना गया है। कहा गया है कि विश्व का यह व्यवस्थित रूप धर्म और अधर्म के कारण ही है। इनके अभाव में विश्व में अव्यवस्था फैल जाती है। यहां इस बात का जिक्र किया जा सकता है कि धर्म और अधर्म का यह सिद्धांत हिन्दू धर्म के धर्मं तथा अधर्म के सिद्धांत के समान ही है। हिन्दू मान्यता के अनुसार, इन्हीं पर क्रमश: संसार का संतुलन तथा असंतुलन आश्रित है । परन्तु जहां जैन धर्म में इन्हें तत्त्वमीमांसीय रूप में माना गया है, वहां हिन्दू धर्म में ये नैतिक तत्व हैं । लेकिन भाववादी नीतिशास्त्र के तत्त्वमीमांसीय मूलाधार एवं परिणाम होते हैं, 7. 'आउटलाइन्स मॉफ जैन फिलॉसफी', पृ० 33 8. 'नियमसार, 30
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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