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जैन दर्शन
देने लगेगा ।"" इस मत के समर्थन में एक जैन पण्डित हाइड्रोजन और क्लोराइन का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। ये दोनों तत्त्व आंखों से नहीं दिखायी देते, परन्तु विभाजन और संयोजन के बाद हाईड्रोक्लोरिक एसिड के दो मॉलेक्यूल को जन्म देते हैं, तो दृष्टिगोचर होते हैं।"
स्कंध के छह भेद बताये गये हैं: "
(1) भद्र भद्र : ऐसे स्कंध जो विखण्डित होने पर पुनः अपनी अखण्ड स्थिति पर नहीं लौट सकते। ठोस पिण्ड इसके उदाहरण हैं।
( 2 ) भद्र : ऐसे स्कंध विखण्डित होने पर पुनः जुड़ते हैं। द्रव पदार्थ इसके उदाहरण हैं ।
(3) मन-सूक्ष्म : ये स्कंध स्थूल दिखायी देते हैं, परन्तु यथार्थ में सूक्ष्म होते हैं, क्योंकि इन्हें न विखण्डित किया जा सकता है, न भेदा जा सकता है, न ही हाथ में धारण किया जा सकता है। उदाहरण दिये गये हैं: सूर्य, ताप, छाया, प्रकाश, अंधकार, इत्यादि । इनके सूक्ष्म कणों का इन्द्रियों को अनुभव होता है ।
(4) सूक्ष्म-भद्र : यह स्कंध भी स्थूल प्रतीत होता है, परन्तु यह सूक्ष्म भी होता है । उदाहरण दिये गये हैं: स्पर्श, गंध, वर्ण तथा ध्वनि की संवेदनाएं | (5) ओर (6) ये दोनों ही अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं और इन्द्रियों द्वारा अगो
चर रहते हैं। उदाहरण बताये गये : कर्म के अणु ।
स्कंधों के पांच गुण हैं : स्पर्श, रस, गंध, ध्वनि और वर्ण । इन्हीं के कारण हम वस्तुओं में विभिन्न गुण देखते हैं। स्वयं परमाणुओं में गुणात्मक भेद नहीं होता। इस माने में जैनों का परमाणु सिद्धांत वैशेषिक के परमाणु सिद्धांत से भिन्न है। वैशेषिक में परमाणुओं में गुणात्मक भेद को स्वीकार किया गया है।
अतः यह स्पष्ट है कि तादात्म्य और परिवर्तन के रूप में वास्तविकता सम्बन्धी जैन मान्यता उनके परमाणु सिद्धांत में पूर्णतः प्रकट होती है। वस्तुम
में
हम 'जो परिवर्तन देखते हैं वे उनके परमाणुओं के संयोजन के विभिन्न पर्यायों के कारण हैं और इन्हें ही वस्तुओं के पर्याय कहते हैं । परन्तु इन सभी पर्यायों की तह में चरम घटकों, यानी परमाणुओं का तादात्म्य भी अन्तर्निहित रहता है । स्वयं परमाणुओं में कोई परिवर्तन नहीं होता । केवल उनके संयोजन के पर्यायों में ही परिवर्तन होता है, जिससे वस्तुओं के विविध पर्याय जन्म लेते हैं ।
4. वही
5. 'आउटलाइन्स ऑफ जैन फिलॉसफी', पु० 74
6. देखिये, ए० चक्रवर्ती, 'रिलिजन ऑफ अहिंसा' (बम्बई : रतनचंद हीराचंद, 1957 ) पू० 117