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अजीव
के वास्तववादी दृष्टिकोण को निस्संदिग्ध रूप से स्पष्ट करती है ।
जैनग्रन्थों में द्रव्य की जो दूसरी परिभाषा देखने को मिलती है, वह न केवल इसके वास्तववादी दृष्टिकोण को स्पष्ट करती है बल्कि साथ ही इसकी वास्तविकता की गतिशील धारणा को भी व्यक्त करती है । यह परिभाषा समास शब्द पुद्गल के शब्दोत्पत्तिमूलक अर्थों पर आधारित है। पुद् शब्द पूरण का खोतक है और गल गलन की क्रिया का। इसलिए पुद्गल या द्रव्य वह है, जो पूरण तथा गलन द्वारा रूपान्तरित होता रहता है। द्रव्य की संरचना के बारे में जो जैनमत है, उस पर विचार करने से इस परिभाषा का सही महत्त्व स्पष्ट हो जायगा ।
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विभाजन की विधि से द्रव्य के चरम घटकों का पता लगाया जा सकता है। जब किसी वस्तु को विभाजित किया जाता है, तो उसके टुकड़ों को पुनः विभाजित किया जा सकता है; परन्तु विभाजन की इस प्रक्रिया को अनन्त काल तक जारी रख पाना संभव नहीं है। क्योंकि इस प्रक्रिया में अन्त में एक ऐसी स्थिति आती है जब आगे और विभाजन संभव नहीं होता। यहां हम द्रव्य के चरम घटक की स्थिति पर पहुंच जाते हैं। इसे ही जैन दर्शन में अणु या परमाणु का नाम दिया गया है। इस प्रकार की व्याख्या का अर्थ यह है कि स्वयं परमाणु लघुतर घटकों के संयोजन से निर्मित नहीं है। इस स्थिति को एक अन्य ग्रन्थ में अधिक स्पष्ट किया गया है: “परमाणुओं का निर्माण द्रव्य के विभाजन से होता है, द्रव्य के संयोजन से नहीं ।" परमाणुओं के संयोजन से जो मॉलेक्यूल बनते हैं, उन्हें जैन दर्शन में स्कंध कहा गया है। इन स्कंधों के संयोजन से ही विविध गुणवाली विभिन्न वस्तुएं बनी हैं। परमाणुओं और स्कंधों में मुख्य अन्तर यह है कि परमाणुओं का विभाजन संभव नहीं, और इनके संयोजन से ही स्कंधों का निर्माण होता है । दूसरे, परमाणु को हम अपनी आंखों से देख नहीं सकते, परन्तु स्कंध को देख सकते हैं। स्कंधों को न केवल परमाणुओं में विभाजित किया जा सकता है, बल्कि इनके संयोजन से विविध वस्तुओं का निर्माण भी किया जा सकता है। यह भी मत देखने को मिलता है कि, "अधिक परमाणुओं से बने कुछ स्कंध दिखायी देते हैं, कुछ नहीं दिखायी देते।" कहा गया है कि स्कंधों की दृश्यता या सामान्य गोचरता विभाजन तथा संयोजन की संयुक्त प्रक्रिया पर आश्रित है । "यदि कोई स्कंध विखण्डित होता है, और एक टुकड़ा दूसरे स्कंध से जुड़ जाता है, तो वह संयुक्त स्कन्ध इतना स्थूल होगा कि दिखायी
1. 'सर्वार्थसिद्धि' V. 25
2. 'तस्वार्थसूत्र', V. 27
3. 'सर्वार्थसिद्धि', V. 28