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अजीव
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अजीव द्रव्यों को पांच तत्त्वों में बांटा गया है । है : पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । यहां हम इनकी क्रमानुसार चर्चा करेंगे।
पुद्गल : यह तत्त्व भूतद्रव्य या भौतिक वस्तुओं का द्योतक है । द्रव्य अनुत्पन्न, अविनाशी और वास्तविक है। इसलिए यह भौतिक जगत् 'कल्पना की सृष्टि' नहीं है, बल्कि वास्तविक है, इसका ज्ञाता के मस्तिष्क से स्वतंत्र अस्तित्व है । यदि हम वास्तववाद के चितन पर विचार करें, तो जैन वास्तववाद का गहन अर्थ हमारी समझ में आ जायगा ।
किसी भी दर्शन के वास्तववादी स्वरूप की सही पहचान उसकी द्रव्य सम्बन्धी धारणा से हो सकती है। इस संदर्भ में खोजबीन की मान्य एवं परम्परागत विधि यह जानना है कि, जगत् का वस्तुतः अस्तित्व है या नहीं। इस समस्या के विश्लेषण में जुटे हुए व्यक्ति की दृष्टि से पूछा जानेवाला विशिष्ट सवाल होगा : "उसके बाहर, उसके ग्रहणक्षम मस्तिष्क के परे, जगत् का अस्तित्व है या नहीं ?" यदि उत्तर है कि इसका अस्तित्व है उसके अनुभवों से स्वतंत्र अस्तित्व है तो यह वास्तववादी दृष्टिकोण का द्योतक है । यदि उत्तर 'नहीं' है, तो यह भाववादी दृष्टिकोण होगा। जैन दर्शन में पुद्गल शब्द द्रव्य का द्योतक है और इसकी मूल परिभाषा है : "वह जिसे पंचेन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया जा सकता ।" इन्द्रियों द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह बाह्य जगत् का ज्ञान है । और चूंकि प्रत्येक इन्द्रिय से ज्ञाता को बाह्य जगत् के बारे
में एक विशेष प्रकार का ज्ञान मिलता है, इसलिए प्राप्त सम्पूर्ण ज्ञान बाह्य जगत् की विभिन्न दशाओं का द्योतक होता है । उदाहरण के लिए, आंखों से हमें बाह्य जगत् की वस्तुओं के आकार एवं रंग के बारे में जानकारी मिलती है। इसी प्रकार, स्पर्शेन्द्रिय व्यक्ति को सूचना देती है कि स्पर्श की गयी वस्तु कठोर है या मुलायम । इसी प्रकार अन्य ज्ञानेन्द्रिय भी जगत् की अन्य दशाओं की जानकारी प्राप्त कराती रहती है। इसी विवेचन के संदर्भ में 'इन्द्रियगोचर' शब्द को समझना चाहिए। क्योंकि अनुभव बाह्य जगत् के साथ सम्पर्क स्थापित करता है और द्रव्य अनुभवजन्य वस्तु के रूप में ज्ञाता की प्रकृति स्पष्ट करता है, इसलिए द्रव्य की जैन परिभाषा का महत्व इस बात में है कि यह इस दर्शन
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