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________________ जीव वश्यकता होती है, उसी व्यक्ति के लिए संभव है जिसके सित होते हैं। यही कारण है कि मनुष्य में जन्म-मृत्यु के चक्र से आकांक्षा पैदा करने के लिए भी उसका शारीरिक एवं मानसिक होना जरूरी माना गया है। जब मनुष्य अस्वस्थ होता है, या उसका मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं होता, तो वह अपना मानसिक संतुलन, जो नैतिक जीवन की तैयारी के लिए एक आवश्यक स्थिति है, खो बैठता है । देवगति : मनुष्यों की तुलना में देवों का जीवन लम्बा होता है और वे कई प्रकार के सुख भोगते हैं । जैन मतानुसार, देवगति 'चरमगति' नहीं है। देव भी अनन्त परमानन्द नहीं भोग पाते। वे भी अपने कर्मानुसार मनुष्य या पशुयोनि में पुनर्जन्म ग्रहण करते हैं। कर्मों के अनुसार वे उत्पाद रूप में प्रकट होते हैं और कर्मों का क्षय होने पर यह अवस्था समाप्त हो जाती है। यहां मी वे मनुष्यों से भिन्न होते हैं। मनुष्यों की तरह देवों की मृत्यु का कोई निर्धारक कारण नहीं होता, इसलिए उनकी जीवनावस्था एक विशेष पर्याय में समाप्त नहीं होती । देवगति के बारे में विशेष बात यह है कि उनकी शारीरिक एवं मानसिक क्षमताएं पूर्णत: विकसित होती हैं ।" 123 ज्ञानेन्द्रिय पूर्णतः विक मुक्ति पाने की स्वास्थ्य ठीक देवों के चार प्रकार बताये गये हैं : 1. भवनवासी : इन्हें निम्नतम स्तर के देव माना गया है, और इन्हें दस वर्गों में बांटा गया है ।" 2. व्यन्तर : इनके बारे में कहा गया है कि ये तीनों लोकों के वासी होते हैं। ये पूर्णतः स्वतंत्र नहीं होते, और कभी-कभी मनुष्यों की भी सेवा करते हैं । इन्हें आठ वर्गों में बांटा गया है। 20 3. ज्योतिष्क : इन्हें पांच वर्गों में बांटा गया है— सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, और स्थिर तारे । केवल मनुष्यलोक के लिए ही ये निरंतर गतिमान दिखाई देते हैं । जैन मतानुसार जिन अनेक सूर्यों तथा चन्द्रों का अस्तित्व है, उसकी यहां बोड़ी व्याख्या करना आवश्यक है। विशेषतः जम्बुद्वीप के संदर्भ में दो सूर्यो तथा दो चन्द्रों की कल्पना की गयी है। उनकी मान्यता के अनुसार, "सूर्य तथा अन्य आकाशस्थ पिण्ड चौबीस घंटों में मेरु की आधी परिक्रमा ही कर सकते हैं। इसलिए भारतवर्ष में जब रात्रि का अंतिम समय होता है तो सूर्य, जिसमे पहले दिन को प्रकाशित किया था, मेरु के केवल पश्चिमोत्तर कोने में पहुंच 8. कर्मग्रन्थ, I. 115 b 9. ये बस वर्ग : असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, बातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार । 10. ये आठ वर्ग हैं किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्ध, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच.
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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