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जैन दर्शन पाता है। इसलिए भारतवर्ष के पूर्व में जिस सूर्य का उदय होता है, वह पहले दिन का अस्त हुआ सूर्य नहीं, बल्कि दूसरा सूर्य होता है। लेकिन हमारी आंखें इन दो सूर्यों में भेद नहीं कर पातीं। तीसरे दिन की सुबह को पुन: पहला सूर्य प्रकट होता है जो उस समय तक मेरु के दक्षिण-पूर्व के कोने पर पहुंच जाता है। इसी प्रकार जैनों ने दो चन्द्रों, दो प्रकार के नक्षत्रों आदि की कल्पना की है। अतः सभी आकाशस्थ पिण्ड द्विगुणित हैं। लेकिन चूंकि इस जोड़े का केवल एक पिण्ड सदैव भारतवर्ष में प्रकट होता है और दोनों पिण्ड एक-दूसरे के सहश होते हैं, इसलिए आकाशस्थ घटनाक्रम में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता।"
4. वैमानिक : जिनके दो वर्ग हैं : कल्पोपपन्न और कल्पातीत । 'कल्प' का अर्थ है 'देवलोक'
5. नरकगति : यह नरक में पैदा हुए जीव की अवस्था है। ताप, शीत, भूख, प्यास तथा वेदना इसे कष्ट देते रहते हैं। घृणा इनमें कूट-कूटकर भरी होती है और इसीलिए ये बुरे विचार रखते हैं और दूसरों को पीड़ा पहुंचाते हैं।
ये नारकीय जीव पृथ्वी के नीचे क्रमशः अधिकाधिक निम्न क्षेत्रों में रहते हैं। जिस जीव का निवासस्थल जितना ही निम्नतर होगा, वह देखने में उतना ही अधिक विद्रूप होगा और उसको मिलनेवाली यातनाएं भी उतनी ही अधिक कष्टप्रद होंगी। प्रथम तीन नरकों को तप्त, चौथे नरक को तप्त एवं शीतल दोनों, और अन्तिम दो को शीतल माना गया है।
ऊपर जीव की जिन चार अवस्थाओं का विवेचन किया गया है, उससे हमें इस जैनमत की जानकारी मिलती है कि, निम्नतम स्तर के प्राणी से लेकर उच्चतम स्तर के प्राणी तक में चेतना का सातत्य है। सिद्धि की उच्चतम अवस्था में चेतना शुद्ध हो जाती है । स्पष्टतः यह अवस्था सामान्य मानव-स्तर से काफी ऊपर की होती है । इस चेतना-सिद्धांत का निष्कर्ष यह है कि किसी भी स्तर के जीव को हेय या घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। परन्तु अकसर यह होता है कि मानव-अस्तित्व के बारे में यह सत्य, कि पूर्णता की ओर यह बीच की एक अवस्था है, भुला दिया जाता है । परिणामतः मानव को इतना अधिक महत्त्व
11. जी थीयो, 'एस्ट्रोनोमी' (जनोरिस र इन्डो-एरिशैन फिलोलोगी. खण्ड 3. भाग 9)
पृ. 21, हैलमुथ फोन ग्लासेनप्प के 'द डाक्ट्रिन ऑफ कर्मन् इन जैन फिलोसोफी'.
पृ.59 से उडत। 12. 'तस्वार्थ सूत्र', IV. 1-27 13. सात नरक ये हैं : रलाभा, सकारप्रभा, बलुकप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रमा, तमःप्रभा और
महातमःप्रमा ।