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________________ 122 जैन दर्शन के सहयोग से बना होता है-जैसे, प्याज और लहसुन, और जिनका अपना शरीर होता है-जैसे, पेड़, पौधे, इत्यादि। बस जीवों के भेद हैं : द्वीन्द्रिय (स्पर्श और रसना युक्त जीव), वीन्द्रिय (स्पर्श, रसना और घ्राण युक्त प्राणी), चतुरिन्द्रिय (स्पर्श, रसना, घ्राण और नेत्र युक्त प्राणी), और पंचेन्द्रिय (स्पर्श, रसना, घ्राण, नेत्र और कर्ण युक्त प्राणी)। दीन्द्रिय जीवों के उदाहरण हैं : कृमि, शंख, जलौक । त्रीन्द्रिय जीवों के उदाहरण हैं : उद्देश, चीटियां, पीडक जन्तु, पतंगे। चतुरिन्द्रिय जीवों के उदाहरण हैं : भ्रमर, मक्खियां मच्छर । पंचेन्द्रिय प्राणियों के उदाहरण हैं : मछली-जैसे जलचर, हाथी-जैसे थलचर और वायुचर पक्षी। इन सबको संजी और असंझी प्राणियों में बांटा गया है। तत्वार्यसूत्र के अनुसार संशी प्राणी वे है, जिनमें अन्तर्चेतना होती है। पंचेन्द्रिय प्राणी जो गर्भधारक होते हैं, जैसे चौपाये, भेड़, बकरी, हाथी, शेर, आदि संज्ञी होते हैं ।' असंज्ञी प्राणी सहजत्ति वाले या मनरहित होते हैं। __मनुष्य गति : मानव जाति को सामान्यतः दो वर्गों में विभाजित किया गया है । एक वर्ग के अन्तर्गत वे प्राणी आते हैं जो अपुंग होते हैं, यानी उनके सभी अवयवों तथा इन्द्रियों का पूरा विकास नहीं हुआ होता; और दूसरे वर्ग के अन्तर्गत उनका समावेश होता है जिनके शरीरावयव एवं ज्ञानेन्द्रिय भलीमांति विकसित हुए होते हैं । इस दूसरे वर्ग के मनुष्यों को मोक्षप्राप्ति में आसानी होती है, क्योंकि आत्मसंयम, जिसकी मोक्षप्राप्ति के लिए अत्या 4. देखिये, याकोबी, संपा० 'जैन सूत्राज', II, पृ. 215 5. जैन लोग व्यवहार रूप में इस वर्ग के प्राणियो को कितना महत्त्व देते हैं, इसका परिचय देते हुए श्रीमती सिक्लेयर स्टिवेसन अपने ग्रन्थ 'द हार्ट ऑफ जैनिज्म' में लिखती है: "एक जन सज्जन ने मझे बताया है कि इस वर्ग के कीड़ों की संतष्टि के लिए एक श्रद्धालु गृहस्थ जब भी इन कीड़ों को पाते तो उन्हें एक खास बिस्तर पर रख देते। फिर उस बिस्तर पर रात भर सोने के लिए किसी गरीब आदमी को वह छह माने देते थे। जो भी हो, दूसरे लोग इस बात को स्वीकार नहीं करते । परन्तु यह सही है कि कोई भी सच्चा जनी पीड़क कीड़ों को नहीं मारेगा। वह बड़ी सावधानी से उन्हें अपने शरीर पर से या घर से उठादेगा और बाहर किसी दुरक्षित स्थान पर . छोर मायेमा । उनके मतानुसार, ऐसे कीड़ों की रक्षा करना उनका कर्तव्य स्थान पर छोडवावेगा। उनके मतानुसार, ऐसे कीड़ों की रक्षा करना उनका कर्तव्य है, क्योंकि उनके प्ररा गंदगी फैलाने से ही ये पैदा हुए हैं। 6. 'सत्त्वापसूब, II. 25 7.पही
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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