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जीब
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अशुद्ध जीव
शुद्ध जीव
1. इसमें चेतना होती है परन्तु केवल इसमें परिपूर्ण असीम चेतना होती है । सीमित रूप में ।
होती है।
2. अवधान तथा परिज्ञान की क्षमता अवमान तथा परिज्ञान का चरम विकास हो चुका होता है, और ये एकदूसरे के समरूप हुए माने जाते हैं। पूर्णतः प्रभुत्वसम्पन्न होता है ।
3. इसमें प्रभुत्व है, यानी जीवन में विभिन्न गतियां प्राप्त करने की क्षमता है।
4. इसमें कार्य की क्षमता होती है । इसमें स्वतंत्र इच्छाशक्ति होती है, इसलिए यह कर्ता कहलाता है। 5. भोक्ता होता है ।
इसका कर्म पर पूर्ण अधिकार हो जाता है । इसलिए यह सही अर्थ में कर्त्ता है।
यह सही अर्थ में भोक्ता होता है। यह परमानन्द भोगता है ।
6. इसका आकार देहमात्र का होता पूर्ण आध्यात्मिक अवस्था को प्राप्त
है ।
होता है ।
कर्मी शरीर के नष्ट हो जाने से पूर्णत: अमूर्त हो जाता है।
7. अमूर्त स्वरूप होता है, फिर भी कर्मी शरीर से सम्बन्ध रहता है। 8. यह सदैव कर्म के साथ संयुक्त रहता है ।
9. सभी जीवन तत्वों के समान शुद्ध एवं सिद्धिप्राप्त आत्मा है ।
सजीव होता है ।
यह कर्म के बन्धन से पूर्णतः मुक्त हो जाता है ।
इन दो प्रकार के जीवों की इन विशेषताओं से स्पष्ट हो जाता है कि अशुद्ध जीव और शुद्ध जीव में न तो कोई स्पष्ट भेद है, न ही प्रतिद्वंद्विता ।
अशुद्ध जीव के दो प्रकार हैं-स्थावर और जस । स्थावर जीवों को एकेन्द्रिय माना गया है और इनके पांच भेद बताये गये हैं: पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय । ये सूक्ष्मतर जीब इन्द्रिय-गोचर नहीं होते ।
पृथ्वीकाय के उदाहरण हैं: धूल, मिट्टी, पत्थर, धातुएं, सिंदूर, हरताल । जलकाय के उदाहरण हैं: पानी, तुषार, बर्फ, कुहरा। अग्निकाय के उदाहरण हैं : ज्वालाएं, कोयले, उल्काएं, विद्युत् । वायुकाय के उदाहरण हैं : प्रभंजन, चक्रवात | और वनस्पतिकाय के उदाहरण हैं जिनका शरीर उनके जैसे दूसरों