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जैन दर्शन में जो अकमर हमें स्वस्तिक का चिह्न दिखायी देता है, वह जीव को चार भिन्न गतियों का द्योतक है :
देवता
मनुष्य
तियंच
नारकी
नारकी स्तर को थोड़ी देर के लिए छोड़ दिया जाय, तो यह कहा जा सकता है कि अन्य स्तर उन बढ़ते स्तरों के द्योतक हैं जिनमें से गुजरकर जीव अन्त में मुक्ति प्राप्त करता है। जीव के विकास की इन विभिन्न अवस्थाओं को पर्याय कहा गया है । इनमें से प्रत्येक अवस्था में जीव में यथार्थ परिवर्तन होते है, हालांकि इसका लक्षण नष्ट नहीं होता। ये परिवर्तन जन्म, विकास तथा मृत्यु में प्रकट होते हैं।
कर्म के सम्पर्क में आने से जीव बन्धन में फंस जाता है और फिर जन्म-मृत्यु का चक्र शुरू होता है। कर्म के साथ जीव का सम्बन्ध अशुद्धता का द्योतक माना जाता है, और इसलिए जीव की बन्धनावस्था को अशुद्ध कहा गया है। मोक्ष की प्राप्ति के बाद जीव शुद्ध हो जाता है। यहां यद्यपि हमने दो प्रकार के जीवों अशुख जीव और शुद्ध जीव . की चर्चा की है, परन्तु यह स्मरण रखना जरूरी है कि ये एक-दूसरे से पूर्णता भिन्न नहीं हैं। दोनों प्रकार के जीवों के गुणों की तुलना करने से यह बात स्पष्ट हो जायगी :
चेतना की धारणा से हमें महिसा के कठोर प्रतीत होनेवाले सिमान्त के बारे में कुछ विशिष्ट जानकारी मिलती है। जनों की 'अहिमा' में पेड़-पौधों तथा बीजों को भी पीड़ा पहुंचाने की मनाही है।