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जीव
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जैन मतानुसार, द्रव्य छह तत्वों से निर्मित है : जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । चूंकि ये सभी तत्त्व वास्तविक और स्वतंत्र हैं इसलिए इन्हें भी द्रव्य माना जाता है।
इनमें जीव तत्त्व चैतन किन्तु रूप-रहित है। पुद्गल तत्व अचेतन किन्तु रूप वाला है, और धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल तत्त्व अचेतन एवं रूपरहित हैं ।" इस प्रकार, जैनों के अनुसार, वास्तविकता को न केवल दो व्यापक तत्वों - चेतन तथा भौतिक में बल्कि तीन तत्त्वों — चेतन, भौतिक, और एक ऐसा तत्त्व जो अचेतन तथा अभौतिक दोनों है— में विभक्त किया जा सकता है। भगवतीसूत्र में हम देखते है कि द्रव्य को दो भागों में बांटा गया है-रूपिन् और अरूपिन् परन्तु तत्त्वों की संख्या के बारे में कोई भेद नहीं है। यह इससे स्पष्ट है कि रूपिन के अन्तर्गत पुद्गल का समावेश हुआ है, और शेष तत्त्व अरूपिन् के अन्तर्गत आते हैं। हम संक्षेप में इन छह द्रव्यों की विशेषताओं का विवेचन करेंगे पहले हम जीव तत्त्व पर विचार करेंगे और फिर अजीव पर, जिसके अन्तर्गत शेष पांच तत्त्वों का समावेश होता है ।
जीव जैन मतानुसार, जीव वास्तविक और अनादि-अनन्त है, और इनकी संख्या अनंत है । रूपरहित होने के कारण ये सभी अगोचर हैं। इस तत्त्व की प्रमुख विशेषता है इसमें चेतना का होना, और इसीलिए यह दर्शन तथा ज्ञान की प्राप्ति में समर्थ है।
यह जीव शब्द केवल मानव आत्मा का ही द्योतक नहीं है। व्यापक रूप से यह चेतना का द्योतक हैं। जैनों के अनुसार, चेतना सत्ता की चार विभिन्न गतियों में प्रकट होती है। इन विभिन्न गतियों के द्योतक चेतना के ये विविध स्तर तिर्यद्, मनुष्य, नारकी और देवता । जैन ग्रंथों में और जैन मन्दिरों
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1. 'तस्वायंसून', V.5
2. बही, V. 4
3. इस 'तियंच' शब्द में वनस्पति के स्तर का भी समावेश होता है। इसकी परिभाषा की गई है : "वे जीव जो स्वर्ग, नरक तथा मनुष्य लोक में रहते हैं ।" यह परिभाषा 'तत्वार्थसूत्र' (IV. 28 ) में देखने को मिलती है। 'तिर्वन्' की इस परिभाषा से तथा