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जैन दर्शन
व्याख्या, अन्य सभी उपायों को त्यागकर, एक विशिष्ट पद्धति से होनी चाहिए, जटिल को सरल बनाना है। वास्तविकता की जटिल प्रकृति का पूर्ण उद्घाटन सरल तर्कवाक्यों - विभिन्न मतों द्वारा संस्थापित और स्वीकृत तर्कवाक्यों से नहीं हो सकता । सामान्य व्यक्ति तथा दार्शनिक दोनों ही कहते हैं कि वास्तविकता जटिल है। जहां सामान्य व्यक्ति हताश होकर वास्तविकता के दार्शनीकरण का प्रयास त्याग देता है वहां दार्शनिक इस तत्त्वमीमांसीय समस्या का सुस्पष्ट हल प्रस्तुत करता है। जैन दार्शनिक इस मामले में अपवाद सिद्ध होता है, क्योंकि उसके मतानुसार, तादात्म्य, नित्यता तथा परिवर्तन ये सब सत्य एवं वास्तविक हैं।
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एक विद्वान के मतानुसार, "उद्भव और विनाश परिवर्तन की दो अवस्थाएं हैं, और इसलिए हम इन्हें संयुक्त रूप से वास्तविकता के गतिशील तत्त्व मान सकते हैं; नित्यता को हम स्थायी तत्व मान सकते हैं ।” अपने इस कथन के समर्थन में वह इन्द्रभूति के प्रश्नों और महावीर के उत्तरों का हवाला देते हैं। महावीर के प्रमुख गणधर इन्द्रभूति उनसे पूछते हैं : वास्तविकता क्या है (किम् तत्त्वम् ) ? महावीर का पहला उत्तर होता है : 'उद्भव' । यही प्रश्न जब दोहराये गये तो उन्होंने क्रमशः उत्तर दिये : 'विनाश' और 'स्थूलता' ।'
वास्तविकता के सूक्ष्म विवेचन से पता चलता है कि जैन दार्शनिकों के अनुसार, न केवल द्रव्य बल्कि इसके बदलते रूप भी वास्तविक हैं। जैन दर्शन के यथार्थवाद की सुसंगतता उन विविध तत्वों के विवेचन से स्पष्ट हो जाती है जो वास्तविकता के घटक माने गये हैं। अब हम इन तत्त्वों की कुछ विस्तार से चर्चा करेंगे ।
7. बाई० जे० पद्मराजिह, पूर्वो० पु० 127 8. बही, पु० 127