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सत्ता मीमांसा
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जीव तथा प्रकृति की सत्ता ईश्वर पर आश्रित है । द्वैत मत का मुख्य अभिप्राय यह है कि जीव ( और जगत) ब्रह्म से पृथक् हैं, और जीव तथा ब्रह्म के बीच के इस मौलिक अन्तर को समझना ही मोक्षप्राप्ति का आरंभिक साधन है। आत्मा को 'नेति' कहा गया है, और महावाक्य से मुख्यतः तात्पर्य है जीवात्मा तथा विश्वात्मा के बीच का अन्तर । इस अन्तर को द्वैत मत में जो महत्त्व दिया गया है, उसके बारे में इस मत के एक विशेषज्ञ लिखते हैं: "किसी जीव या वस्तु की सत्ता इसीलिए होती है कि उसी वर्ग की अन्य वस्तुओं से, और इसीलिए अन्य वर्गों के सदस्यों से भी, उसका अन्तर होता है। इस अन्तर को स्पष्ट करने के लिए भाषा के माध्यम का या किसी बाह्य भाव का इस्तेमाल हुआ हो या नहीं, यह अन्तर वस्तु या जीव का एक मूलभूत गुण है। किसी वस्तु की पहचान satfoए होती है कि वह अन्य वस्तुओं से भिन्न है । विषय के व्यावहारिकतावादी उद्देश्य के अनुसार, और स्वयं वस्तुओं के मूलभूत एवं आवश्यक संयोजन के अनुसार इस अंतर पर बल दिया गया है। इस अन्तर से ही तादात्म्य को महत्त्व प्राप्त होता है । "
उपर्युक्त जानकारी से स्पष्ट है कि किसी वस्तु की पहचान के लिए उसके विशेषक स्वरूप को समझना जरूरी होता है। इसमें संदेह नहीं कि एक प्रकार से वस्तु और उसके गुण एक-से होते हैं, परन्तु वे पूर्णतः एकरूप नहीं होते । इसीलिए हम वस्तु और इसके गुणों के बीच के अन्तर की सार्थक चर्चा कर पाते हैं । इस सबका सारतत्त्व यह है कि द्वैत तत्त्वमीमांसा में तादात्म्य की बजाय अन्तर को महत्त्व दिया गया है।
विभिन्न प्रकार के तत्त्वमीमांसीय सिद्धांतों के पुनर्विलोकन से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि वास्तविकता का विशुद्ध एकत्व या सुस्पष्ट अनेकत्व के साथ मेल बिठाने का प्रयत्न किया गया। । जहां चरमपंथी मतों को नहीं अपनाया गया, तो उसका कारण यह है कि उस सिद्धांत में वास्तविकता के विवेचन में दोनों (एकत्व या अनेकत्व) में से एक धारणा को अधिक महत्त्व दिया गया है ।
जैन दर्शन में ऐसे किसी दृढ़ मत को नहीं अपनाया गया है, तो इसका एक सरल एवं सुस्पष्ट कारण है। सरल इसलिए कि विषय को तोड़ा-मोड़ा नहीं गया है, और न ही अमूर्तता में उलझाया है। यह सुस्पष्ट इसलिए है कि इसमें जनसाधारण और दार्शनिक दोनों को ही अपनी प्रतिध्वनि सुनाई देगी। जैन दार्शनिकों के अनुसार, वास्तविकता इतनी जटिल है कि इसकी प्रकृति को स्पष्ट कर पाना कठिन है । ऐसी स्थिति में, बलपूर्वक यह कहना कि वास्तविकता की
6. आर० नागराज शर्मा, 'रेन ऑफ रिलिजन इन इंडियन फिलासफी', पु० 239