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सत्ता मीमांसा
धारणाएं हमारे मस्तिष्क की उपज हैं। इस प्रकार, बौद्ध तत्व-मीमांसा में विभेद या अन्तर की धारणा सर्वप्रमुख है। यदि सातत्य की धारणा को, जो नित्यत्व, सारतत्व एवं तादात्म्य की धारणा को जन्म देती है, अस्वीकार किया गया है, तो इसका कारण यह है कि प्रत्येक सत्ता पूर्णतः स्वयंशासित एवं स्वतंत्र है।
सांख्य में हम देखते हैं कि मात्र तादात्म्य या सत्ता और पूर्ण परिवर्तन या सातत्य की इन समस्याओं को सुलझाने के विशिष्ट प्रयास में इन्हें संश्लेषित किया गया है । सांख्य दर्शन में द्रव्य तथा चेतना के द्वैतवाद को स्वीकार किया गया है और इन्हे क्रमश: प्रकृति और पुरुष कहा गया है। ये वास्तविकता की दो प्रमुख किन्तु स्वतंत्र अवस्थाएं हैं। प्रकृति गतिशील किन्तु अचेतन तत्त्व की द्योतक है और पुरुष स्थिर किन्तु चेतन तत्त्व का। चूंकि प्रकृति गतिशील तत्व है, इसलिए, सभी प्राकृतिक परिवर्तन इसी के कारण होते हैं । ये परिवर्तन प्रकृति के घटकों - सत्त्व, रज तथा तम के विविध प्रकार के संयोजनों से होते हैं। विभिन्न वस्तुओं के विकास तथा विघटन, दोनों से ही परिवर्तन की वास्तविकता सिद्ध होती है। प्रथम स्थिति में अधिकाधिक विभेद पैदा होते हैं जो विभिन्न परिणामों को जन्म देते हैं। दूसरी स्थिति में संसार की विविध वस्तुएं विघटित हैं और आरंभिक समरूप स्थिति की ओर अग्रसर होती हैं। इस प्रकार, इस दर्शन में परिवर्तन वास्तविक है।
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परन्तु परिवर्तन की यह धारणा, जो विभेद की धारणा की ओर निर्देश करती है, सांख्य के सत्कार्यवाद से ही सुस्पष्ट हो सकती है। इस सिद्धान्त के अनुसार, कार्य कारण से पूर्णत: भिन्न नहीं है; यह कारण में शुरू से ही विद्यमान रहता है। इसे समझाने के लिए सामान्यतः सूत और वस्त्र का उदाहरण दिया जाता है। माना गया है कि वस्त्ररूप कार्य सूतरूप कारण में पहले से विद्यमान रहता है। कारण मौर कार्य में भेद यही है कि, कार्य कारण की एक विशिष्ट प्रकार की संस्थापना ( संस्थानभेद) है। सांख्य में कारण और कार्य के बीच के तादात्म्य को इतना अधिक महत्त्व दिया गया हैं कि इनके बीच के भेद का महत्त्व अपने-आप घटता जाता है।
विशिष्टात: नाम से ही इसका वास्तविकता सम्बन्धी दृष्टिकोण स्पष्ट है | वास्तविकता या ब्रह्म अद्वैत नहीं है, परन्तु इसकी जटिल समग्रता में एकता एवं अनेकता दोनों ही समाहित हैं। जहां शंकर परम तादात्म्य को मानते हैं, जिसमें विभेद लुप्त हो जाते हैं, वहां रामानुज के दर्शन में विभेद को मन की और इसलिए कल्पना मानकर दूर नहीं कर दिया गया है, बल्कि एक स्थायी सत्ता के साथ समाहित कर लिया गया है।
उपज,
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यह समग्रता तीन परम तत्त्वों - अनित्, चित् तथा ईश्वर से निर्मित है। इनमें अचित् तत्त्व भौतिक वस्तुओं तथा चित् तत्त्व जीवों का द्योतक है। एक