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________________ 114 जैन दर्शन मिथ्या। फिर भी सर्परूपी रस्सी में वास्तविकता के सारे गुण विद्यमान दिखाई देते हैं । इस तथ्य के कारण को नहीं समझा जाता; वहां विद्यमान रस्सी का बोध नहीं होता, बल्कि अविद्यमान सर्प का बोध होता है। जब यथार्थ ज्ञान का उदय (इस संदर्भ में यह ज्ञान कि वहां सिर्फ एक रस्सी है, सर्प नहीं है) होता है, तो रस्सी सर्प प्रतीत नहीं होती। इसी प्रकार, एकमाव यथार्थता, ब्रह्म, जगत रूप में दिखायी देता है। और जब तक इस तथ्य को नहीं समझ लिया जाता, तब तक जगत का अनेकत्व स्वीकृत रहता है और इसे ही सम्पूर्ण वास्तविकता मान लिया जाता है। शंकर हमें जगत के अनेकत्व से, जो केवल भाभास है और वास्तविक नहीं है, अद्वत ब्रह्म की ओर ले जाते हैं, जो इस जगत में एकमात्र वास्तविकता है और जो जीवित तथा निर्जीव वस्तुओं के संसार के रूप में व्यक्त हुई है। इस प्रकार, शंकर की मान्यता के अनुसार, ब्रह्म एकमेव वास्तविकता है, जिसमें किसी प्रकार का विभेद नहीं है। उनका सत्ता-मीमांसीय दृष्टिकोण एक विशुद्ध समरूप सत्ता का है। बौदों का वास्तविकता सम्बन्धी दृष्टिकोण अद्वैत के पूर्णत: विपरीत है। बौद्ध मत के अनुसार, नित्यता, तादात्म्य तथा सामान्य जैसी धारणाएं कल्पना की उपज हैं। उपनिषदों में वास्तविकता को व्यक्त करने के लिए आत्मा, निस्यता, आनंद आदि जो शब्द मिलते हैं, उनके स्थान पर बौद्ध ग्रन्थों में वास्तविकता तथा जीवन संबंधी मान्यताओं के लिए नरात्म्य, अनिस्य तथा दुःख शब्द देखने को मिलते हैं। विभिन्नता की धारणा, जो कि अनित्यता के सिद्धान्त पर आधारित है, बौद्ध सत्ता-मीमांसा में महत्त्व का स्थान रखती है। इसका विवेचन करते हुए थियोडोर श्वेरवात्स्की ने लिखा है : "बौद्ध दर्शन में एकमात्र और परम वास्तविकता क्षण है। प्रत्येक क्षण शेष क्रमिकता (संतान) से भिन्न या स्वतंत्र होता है। जिस किसी वस्तु का भी अस्तित्व है, वह दूसरी विद्यमान वस्तुओं से सर्वथा पृथक् है। अस्तित्व होने का अर्थ है पृथक् अस्तित्व । पृथक्त्व की धारणा अस्तित्व की धारणा की प्रमुख विशेषता है (भावलक्षणपृथक्त्वात्)।" "अतः प्रत्येक वास्तविकता स्वतंत्र वास्तविकता है। जो कुछ भी समरूप या समान है, वह वस्तुत: वास्तविक नहीं है। इस संदर्भ में श्चेरवास्की मागे लिखते हैं कि "दिक्काल में अंतर का अर्थ है, द्रव्य में अंतर।" बौद्धों ने किसी नित्य पदार्थ की धारणा को अस्वीकार किया है। केवल 'क्षण' ही वास्तविक है, और उनकी श्रृंखलाओं पर आधारित सातत्य की सभी 1. 'बुद्धिस्ट लॉजिक' (लेनिनबाद, 1930), बण्ड प्रथम, पृ. 30 2. बही, खण्ड प्रथम, पृ. 105 3. वही, खण्ड द्वितीय, पृ. 282
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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