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सत्ता मीमांसा
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जैन दर्शन में सत्ता सिद्धान्त के बारे में कोई परम दृष्टिकोण नहीं अपनाया गया है। वास्तविकता के सारतत्त्व के संदर्भ में न तो तादात्म्य पर बल दिया गया है, न ही विमेव पर। इसमें वास्तविकता को समझने के लिए तादात्म्य या विभेद में से किसी एक को विशेष महत्त्व नहीं दिया गया है। जैन दर्शन में वास्तविकता के ज्ञान के लिए तादात्म्य तथा विभेद, दोनों को ही समान रूप से महत्त्व का माना गया है। किसी एक परम स्थिति को अपनाने से स्पष्ट इनकार देखने को मिलता है, और तादात्म्य या विभेद में से किसी एक के महत्त्व को कम आँकने से भी इनकार किया गया है। अन्य भारतीय दर्शनों की मान्यताओं की पृष्ठभूमि में हम जनों के वास्तविकता सम्बन्धी दृष्टिकोण को भलीभांति समझ सकते हैं। एक सीमा पर शंकर का अद्वैत मत है, जिसके अनुसार तादात्म्य ही वास्तविकता है । दूसरी सीमा पर बौद्ध मत है, जिसके अनुसार विभेद में ही वास्तविकता का सारतत्त्व निहित है। इन दो सीमान्त या परम मतों के बीच में सांख्य, विशिष्टाद्वैत, वैशेषिक तथा द्वैत मत हैं। साल्य तथा विशिष्टाद्वैत में विभेद को तादात्म्य का अनुगामी बनाया गया है, और वैशेषिक तथा देत में तादात्म्य को विभेद का अनुगामी। हम इन दार्शनिक विचारों की क्रमानुसार चर्चा करेंगे।
अद्वैत मतानुसार, ब्रह्म ही एक परम वास्तविकता है, और यह अनुभवजन्य विश्व केवल दृश्यसत्ता या आभास है । हमें यह जो अनेकत्व या विभेद दिखायी देता है, उससे हमें वास्तविकता की जानकारी नहीं मिल सकती; इसमें हमें आधारभूत ब्रह्म का ही निर्देश मिलता है। यह दृश्यमान जगत अपने भौतिक कारण का वास्तविक परिणाम नहीं है। यह केवल एक आभास है। इस जगत के पीछे एकमात्र वास्तविकता अद्वैतबाही है।
शंकर की जगत सम्बन्धी सम्पूर्ण धारणा विवर्त के सिद्धान्त पर आधारित है, जिसके अनुसार अवास्तविक हमें वास्तविक प्रतीत होता है। अपने इस मतजो वास्तविक प्रतीत होता है, उसका आवश्यक रूप से वास्तविक न होना-को भली-भांति समझाने के लिए शंकर ने रस्सी-सर्प के साहश्य का उदाहरण प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है। इस उदाहरण में रस्सी सत्य है और सर्प