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जैन दर्शन
अध्येता ने भी कहा है कि दार्शनिक चिंतन के इस ढेर में कोई एक केन्द्रीय सिद्धान्त नहीं है। सन् 1908 में धर्मों के इतिहास के तीसरे अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेन में अपने भाषण का आरंभ करते हुए उन्होंने कहा था : "जो कोई जैन दर्शन के अध्ययन में जुट जायगा, उसे लगेगा कि यह बिना किसी केन्द्रीय मान्यता के दार्शनिक मतों का एक ढेर है, और उन्हें इस बात से अचरज होगा कि जो हमें एक अव्यवस्थित दर्शन लगता है, उसका प्रचार कैसे हुआ ।" हमारी दृष्टि से आगे के शब्द अधिक महत्त्व के हैं, क्योंकि याकोबी कहते हैं: "स्वयं मेरा यह मत रहा है, और मैंने इसे व्यक्त भी किया है, परन्तु अब मैं जैन दर्शन को एक भिन्न दृष्टिकोण से देखता हूं। मेरा मत है कि जैन दर्शन का अपना एक तत्त्वमीमांसीय आधार है, जिससे इसे ब्राह्मण तथा बौद्ध, दोनों ही विरोधी दर्शनों से अलग स्थिति मिल गयी है।"10 याकोबी जैसे विद्वान आरंभ में जैन तत्त्व-मीमांसा के आलोचक रहे, परन्तु बाद में उन्होंने जैन चितन के समग्र स्वरूप को समझ लिया, इस तथ्य से हमें तसल्ली मिलती है कि जैन दर्शन के प्रति मुक्त दृष्टिकोण रखने से इसकी तत्त्व-मीमांसा की हमें सही जानकारी अवश्य मिल सकती है।
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अन्य भारतीय दर्शनों के साथ इसकी तुलना करने के पहले जैन तत्त्वमीमांसा के एक और स्वरूप की यहां चर्चा जरूरी है। जैनों की वास्तविकता, सत्ता तथा द्रव्य सम्बन्धी मान्यता के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि, जिस प्रकार जैन दर्शन में वास्तविकता तथा मत्ता को एकरूप माना गया है, उसी प्रकार वास्तविकता तथा द्रव्य को भी एकरूप स्वीकार किया गया है । इसी बात को जैन धर्मग्रन्थ में सूत्र रूप में कहा गया है : "सब एक है, क्योकि सबका अस्तित्व है । "11
परन्तु यहां यह जान लेना चाहिए कि यह एकरूपता द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से ही सिद्ध है, पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से नही । इस दूसरी दृष्टि से द्रव्य का जीव तथा अजीव में, और फिर अजीव का पांच और द्रव्यों में ही विभाजन सिद्ध है ।
8. जिनविजय मुनि, संपा० 'स्टडीज इन जैनिज्म' (अहमदाबाद : जैन साहित्य संशोधक स्टडीज, 1946), पृ० 48
9. 'कल्पसूत्र' के अपने संस्करण की भूमिका ( पृ० 3) में उन्होंने लिखा है कि महावीर का दर्शन " सही अर्थ में दर्शन न होकर विभिन्न विषयों पर व्यक्त मतों का संग्रह है। उन दार्शनिक मतों के ढेर में कोई मौलिक धारणा नहीं है।
10. जिनविजय मुनि, संपा०, पूर्वो०, पृ० 48 11. 'तत्त्वार्थ सूत्र भाष्य', I. 35