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feet और सत्ता
परिवर्तनों को उत्पाद तथा व्यय कहा गया है। उमास्वामि के अनुसार, सत् उत्पाद, व्यय तथा प्रीव्य (स्थिरता) से युक्त होता है।" पर्याय यानी परिवर्तन के विविध संदर्भों में प्रयुक्त होनेवाले शब्द हैं: रूपान्तर, उद्भव, अन्तर, सूक्ष्मता, अनेकता, विविधता, बहुलता, इत्यादि । ये शब्द न केवल जन्म ( उत्पाद) के अपितु मृत्यु (यम) के भी द्योतक हैं। इसी प्रकार 'ध्रुवत्व' के अर्थ में सारतत्त्व, आधार, सत्तर, एकरूपता, अभेद, सातत्य, एकता, एकत्व, नित्यता, स्थिरत्व, स्थायित्व आदि शब्दों का प्रयोग होता है ।"
जैन परम्परा में वास्तविकता के बारे में जो विविध उल्लेख आये हैं, उनसे स्पष्ट होता है कि उत्पाद तथा व्यय वास्तविकता के गतिशील स्वरूप के द्योतक हैं और ध्रुब से स्थिर स्वरूप का बोध होता है। तार्किक दृष्टि से यह भी कहा जा सकता है कि इन तीनों स्वरूपों में से किसी एक के भी बिना वास्तविकता की कल्पना सैद्धान्तिक अमूर्तता की कोटि की होगी, जिसमें दार्शनिक कभी-कभी उलझ जाते हैं। जो कुछ भी वास्तविक है, उसकी उत्पाद, व्यय तथा ध्रुव की विशेषताओ के बिना कल्पना ही नहीं की जा सकती।
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सत्ता सम्बन्धी जैन विचार का विश्लेषण कुछ भिन्न प्रकार से भी किया जा सकता है । विविध रूपों के अस्तित्व की मान्यता ही उस वस्तु के अस्तित्व की, विविध गुणों की परिकल्पनावाली वस्तु की, सूचक है। जैन मतानुसार, गुणों का सार्थक विवेचन करने का अर्थ ही है अन्तर्भूत या आधारभूत वस्तु का अस्तित्व स्वीकार करना। बदलते रूपों का विचार करते समय भी हम द्रव्य की सत्ता मान लेते हैं, क्योंकि रूपान्तरण एवं परिवर्तन किसी वस्तु में होते हैं, और वह वस्तु, स्थायी बनी रहती है, इसलिए वह बदलते रूपों तथा गुणों की तरह ही वास्तविक होती है ।
जैन सत्ता-मीमांसा ऊपर विवेचित एकरूपता तथा परिवर्तन के सिद्धान्त पर आधारित है। जब हम जैन मान्यता की अन्य भारतीय दर्शनों के विचारों के साथ तुलना करते हैं, तो यह अधिक सुस्पष्ट हो जाती है। ये अन्य विचार जैन मत की आलोचना करते हैं। जैन मान्यता के विभेदात्मक स्वरूप को भलीभांति न समझने के कारण वास्तविकता एवं सत्ता के रूप परिवर्तन वाले सिद्धान्त पर आत्म-विरोधी होने का जो आरोप है, वह स्वाभाविक है। वास्तविकता सम्बन्धी विभिन्न मतों की चर्चा हम अगले प्रकरण में करेंगे। यहां हम इसी एक बात की ओर निर्देश करेंगे कि याकोबी जैसे जैन दर्शन के गंभीर
6. 'तस्वार्थसून', V. 29
7. देखिये बाई० जे० पद्मराजिह, 'जैन थ्योरीज ऑफ रियलिटी एण्ड नॉलेज' (बम्बई : जैन साहित्य विकास मण्डल, 1963), पृ० 127