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जैन दर्शन
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यदि हम जीव तथा अजीव को वास्तविकता के दो तत्त्व मानते हैं, तो जैन दर्शन को वैतवादी कहा जा सकता है। जैन दर्शन को बहुवादी या अनेकान्तवादी भी कहा जा सकता है, क्योंकि अजीव को फिर पांच प्रवर्गों में विभाजित किया गया है।
जो तत्त्व सत्, वास्तविक तथा दिक से सम्बन्धित हैं, उन्हें जैन दर्शन में अस्तिकाय कहा गया है। ये अस्तिकाय पांच हैं : जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश । इन अस्तिकाय के स्वरूप तथा गुण बदलते रहते हैं। विशेष बात यह है कि इनका अस्तित्व है, और विस्तार भी।
काल को अस्तिकाय नहीं माना जाता, क्योंकि यद्यपि यह दिक से सम्बद्ध है, फिर भी यह दिक् में अन्तनिहित नहीं है। इस विशेषता के अलावा काल के अन्य गुण अन्य तत्त्वों-जैसे ही हैं । पंचास्तिकाय तथा काल से जो छह तत्त्व बनते है, उन्हें ही जैन दर्शन में स्वीकार किया गया है। इन छह तत्वों को द्रव्य नाम दिया गया है। चूंकि इन छहों तत्त्वों का अस्तित्व है, इसके स्वरूप तथा गुण बदलते रहते हैं, इसलिए जैन दर्शन में द्रव्य की जो परिभाषा दी गयी है, वह यह है : "जो तत्त्व अपने विविध गुणों तथा स्वरूपों को प्रकट करते हुए अपने पृथक्त्व को बनाये रखते हैं, और जो सत्ता से भिन्न नहीं हैं, उन्हें द्रव्य कहते
ऊपर द्रव्य की जो तीन विशेषताएं बतायी गयी हैं, वे अत्यंत महत्त्व की हैं, क्योकि वे सभी जैन दर्शन के वास्तववाद की पुष्टि करती हैं। सत् शब्द चेतना से पृथक् एक द्रव्यमय विश्व के अस्तित्व का द्योतक है। द्रव्य तथा अद्रव्य का यह विश्व केवल चेतना से उदभूत नहीं है। विश्व का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। सर्वार्थ सिद्धि में कहा गया है कि द्रव्य मूलतः नहीं बदलता। 'उत्सत्ति' तथा 'विनाश' शब्द द्रव्य के केवल बदलते स्वरूप के द्योतक हैं; वस्तुतः द्रव्य की न उत्पत्ति होती है, न विनाश । द्रव्य के अनन्तकालिक अस्तित्व को स्वीकार किया गया है। उदाहरण के लिए, मिट्टी को जब विविध रूपों में ढाला जाता है, तो इसकी मूल प्रकृति में फरक नहीं पड़ता।
इस प्रकार, सत्ता का 'अन्तर्भाग' या 'स्थायी सत्ता' द्रव्य है, और जैन दार्शनिकों ने इस एकरूप तत्त्व को ध्रव नाम दिया है। जैनों का प्रमुख तर्क यह है कि किसी वस्तु में होने वाले परिवर्तनों को समझने के प्रयास का अर्थ ही यह है कि परिवर्तनों के बावजूद वह वस्तु स्थायी बनी रहती है। वस्तु में होने वाले
3. 'द्रव्यसंग्रह, 24 4. पंचास्तिकाय, 8 5. V.30